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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अर्थ-वीतराग सर्वज्ञ वारा प्रतिपादित छह द्रव्यादिका सम्यक् धडान, ज्ञान तथा प्रतादिका अनुष्ठानरूप ब्यवहारमोक्षमार्ग है।
श्री नियमसारमें पूर्वोक्त ५ वौं गाथाके अतिरिक्त ५१ से ५५ तक पाँध गाथाओं में रत्नत्रयका विस्तुत स्वरूप कथन है
विवरीयाभिणियसविवज्जियसब्दहणमे सन्मत। संसयविमोहविन्भमविज्जियं होदि सणाणं ।।५१॥ चल-मलिनमगादत्तविवज्जियसदहणमेव सम्मत्तं । अधिगमभावे गाणं हेयोपादेयतच्चाणं ॥५२॥ सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अंतरहेऊ भणिदा दसणमोहस्स खयपहुदी ॥५३॥ सम्मस सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं । ववहार-णिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ॥५४।। ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरण।
णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो ५५५।। अर्थ-विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है, संशय-विमोह-विभ्रम रहित सम्परज्ञान होता है।॥५२॥ चल-मसिन-अगाड रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व होता है। हेय उपादेय तत्वोंका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥५२॥ जिनसव तथा उनका ज्ञापक पुरुष सम्यक्त्वका बहिरंग निमित्त है, और दर्शनमोहके क्षयादिक अन्तरंग हेतु कहे गये है ॥५३॥ हे भव्य जीव 1 सुन, मोक्ष के लिये सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र होते हैं, इसलिये व्यवहार तथा निश्चय चारित्रका कथन करता हूँ ॥५४।। मवहारनयके चारित्रमें व्यवहारनयका तपश्चरण होता है और निश्चयनयके चारित्रमै निश्चयनयका तपश्चरण होता है ॥५५।।
इन गाथाओंके टीकाकारले निम्नलिखित टीका द्वारा गाथार्थका विस्तार करते हुए स्पष्ट किया है कि ५५वीं गायाके उत्तरार्धके अतिरिक्त शेष सब व्यवहाररत्नत्रमके स्वरूपका कथन है । टीका देखिये
भेदोपचाररत्नत्रयमपि तावद् विपरीताभिनिवेशविजितश्रद्धानरूपं भमवतां सिविपरम्पराहेतुभूतानां पञ्चपरमेष्ठिनां चलमलिनागाढवजितसमयजनितनिश्चलभक्तियुक्तत्वमेव 1 विपरीते हरिहरहिरण्यगर्भादिप्रणीते पदार्थसार्थे ह्यभिनिवेशाभाव इत्यर्थः । संज्ञानमपि च संशयविमोहविभ्रमविवजितमेव । तत्र संशयस्तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति । विमोहः शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि निश्चयः । विभ्रमो ह्यज्ञानमेव । पापक्रियानिवृत्तिपरिणामश्चारित्रम् । इति भेदोपचाररत्नजयपरिणतिः । तत्र जिनप्रणीतहेयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्यग्ज्ञानम् ।
अर्थ---भेदोपचार रत्नत्रय भी विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान, आत्मसिद्धिके परम्परा कारणभूत पच परमेष्ठी भगवानकी चल, मलिन एवं अगाढ़ रहित निश्चल भक्ति हो है, जो कि हरिहर, ब्रह्मादिप्रणीत विपरीत पदार्थसमूहमें अभिनिवेशका अभावरूप है और सम्यग्ज्ञान भी संशय, विमोह, विभ्रम रहित ही है । इनमें संशयका का यह है कि 'जिन' देव है ? या 'शिव' देव है ? शाक्यादि-बौद्धादि द्वारा कही हुई वस्तुओंमें निश्चय होना विमोह है। विभ्रम अज्ञानता ही है और पापक्रियासे निवृत्तिरूप परिणाम चारित्र है । यह भेदोपचार रत्नत्रयकी परिणति है । इनमें जिनप्रणीत हेयोपादेय तत्त्वका ज्ञान ही सम्पज्ञान है।