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शंका ४ और उसका समाधान
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आगे चलकर इसी प्रत्यके चौथे अध्यायमें व्यवहारचारित्रका कथन है, जिसमें पांच पापोंसे निवृत्ति अर्थात् पञ्च व्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्तिको व्यवहार चारित्र कहा है । इस अध्यायको अन्तिम गाथा ७६ द्वारा यह स्पष्ट किया है कि इस अध्यायमें व्यवहार चारित्रका कथन किया है । पन्च पापोंके त्यागका नाम व्रत बतलाया है, क्रिया करते समय प्रमाद असावधानीका त्याग समिति है और मन, वचन, कायकी क्रियाका निरोध करना गुप्ति हैं ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य दर्शन पाहुडमें लिखते हैं—
छह दव्य णव पयत्था पंचत्थी सप्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिद्धो मुणेयवो ॥ १९२॥
अर्थ — जिनेन्द्र द्वारा निर्दिष्ट छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय तथा सप्त तत्त्वोंके स्वरूपका जो
श्रद्धान करता है उसे सम्यग्वृष्टि जानना चाहिये ॥ १९ ॥
श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखते हैं
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तगमतपोभूताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ||४||
अर्थ – सत्यार्थ आप्त, आगर और गुरुका श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है । यह तीन मूढता रहित, आठ अंग सहित और आठ मद रहित होता है ।
ऐसे अन्य भी बहुत प्रमाण हैं । इन सब प्रमाणोंसे स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार रत्नत्रयको मात्र रागरूप कहना अर्थात् 'निश्चय रत्नत्रयके साथ जो राम रहता है उस रागांशका नाम व्यवहार रत्नत्रय है' कहना आगम विरुद्ध है। प्रत्युत 'राग, भेद या विकल्प सहित जो सप्त तत्त्व आदिका श्रद्धान व ज्ञान तथा पापोंसे निवृत्तिरूप चारित्र है वह व्यवहाररत्नत्रय या व्यवहारमोक्षमार्ग है।' इसीको उपचार रत्नत्रय भी कहा जाता है । यह निश्चयरत्नत्रय एवं मोक्षका हेतु है । जिसके कुछ प्रमाण पहले पत्रक में तथा इसी लेखमें ऊपर दिये हैं। और भी देखिये
श्री अमृतचन्द्र सूरि पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थमे निश्चयके साथ व्यवहार रत्नत्रयको मुक्तिका कारण बतलाते हैं-
सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः ।
मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ||२२||
अर्थ - इस प्रकार यह पूर्व कथित निश्चय और उपचार व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रलक्षण - वाला मोक्षमार्ग आत्माको परमात्मपद प्राप्त कराता है ।
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पञ्चास्तिकायकी गाथा ७० को टीकामे जयसेनाचार्य लिखते हैं- .
निश्चय व्यवहारमोक्षमार्गचारी
गच्छति निर्वाणनगरम् ।
अर्थ - - निश्चय तथा व्यवहार मोक्ष मार्गपर चलनेवाला व्यक्ति मोक्ष नगरको पहुँच जाता है । निश्चय व्यवहारमोक्षकारणे सति मोक्षकार्य सम्भवति ।
- पञ्चास्तिकाय गाथा १०६ जयसेनीया टीका
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