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शंका-समाधान १ की समीक्षा
आरुवर्य यह है कि उत्तरपक्षने रागादिको एकअपेक्षासे पौनलिक भी मानतशा व्यवहार सीसके भी माना और वे पौद्गलिक क्यों है व व्यवहारसे जीवके क्यों हैं इराका विवेचन भी किया, परन्तु अब पूर्वपक्षने पहलेसे ही उन्हें उसी अपेक्षासे पौद्गलिक माना है और व्यवहारसे जीवके माना है तो दूसरोंकी दृष्टि में पूर्वपक्षको गिराने तथा उसका कल्पित विरोध करने के लिये उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके ऊपर मनगढन्स मिथ्या आरोप गड़कर उनका खण्डन आगमप्रमाणोंके आधारपर इस ढंगसे करनेकी चेष्टा की, जिससे तत्त्वजिज्ञासुओंको यह जान पड़े कि आगमको जानकारी और भक्ति केवल उसी में है, पूर्वपक्षमें न तो भागमकी जानकारी है और न भक्ति हो है । परन्तु उसका यह मात्र छल है, जो तत्त्वफलित करनेकी दृष्टिसे उसके लिये शोभास्पद नहीं है।
तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्षकी दृष्टिमें ये बातें विवादग्रस्त नहीं है, जिन्हें उत्तरपक्षने त० च० पृ० ३८ से पु०४१ तक प्रस्तुत की है । विवादका मुख्य महा यही है कि कार्योत्पत्ति में निमित्तकारणको सहायक होने रूपसे कार्यकारी माना जाये या उसे वहां पर सर्वथा अकिषित्कर स्वीकार कर उपादानकी कार्यरूप परिणति निमित्तकारणका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप ही हुई स्वीकार कर ली जाये ? उसरपक्ष को अपने विचार इसी मुद्देपर प्रगट करना चाहिए थे । निर्विवाद और अनावश्यक बातोंका विस्तार 'धानके भूसेपर मूसल पटकना' कहा जायेगा, जिससे कोई फल प्राप्त नहीं होता और न तत्व प्रहण होता हो। कथन २५ और उसकी समीक्षा
(२५) उत्तरपक्ष ने "समयसार गाथा ६८ की टीकाका आशय" शीर्षकसे त० १० पु. ४१ पर निम्नलिखित कथन किया है
"अब समयसार गाथा ६८ को टीकापर विचार करते है-इसमें कारणके अनुसार कार्य होता है जैसे जो पूर्वक उत्पन्न हुए जो जो हो है इस न्यायके अनुसार गुणस्थान या रागादि भावोंको पोद्गलिक सिद्ध किया गया है। इस परसे अपरपक्ष निश्चयनपसे उन्हें पौद्गलिक स्वीकार करता है किन्तु अपरपश्च यदि पुद्गल आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है इसलिए वे निश्चयनयसे पौद्गलिक है या पुदगलके समान रूप, रस, गंध और स्पर्श वाले होने के कारण निश्चयनयसे ये पौद्गलिक है ऐसा मानता हो तो उसका दोनों प्रकारका मानना सर्वथा आगमविरुद्ध है, क्योंकि परके अवलम्बनसे उत्पन्न हुए वे जीवके ही घिविकार है और जीवने आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न किया है । अतएव अशुद्ध पर्यायार्षिकनयसे ये जीव ही है।"
उन्नरपक्षने यह कथन पूर्वपक्ष द्वारा तच० प०१२पर किये गये इस कथनपर विचार करते हुए किया है कि "समयसार गाया ६८ की टोकामें यह कहा गया है कि जिस प्रकार जोसे जौ उत्पन्न होता है उसी प्रकार रागादि पुद्गल कोसे रागादि उत्पन्न होते है इसी कारण निश्चयनयसे रागादि भाव पोद्गलिक हैं।"
यहाँ उत्तरपक्षके कथनपर विचार करनेके पूर्व पूर्व पक्ष के कथनका आशय दिया जाता है। उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष के कथनका विपर्यास किया है और उसके कथनको आगमविरुद्ध कहा है। परन्तु जिस प्रकार र्पणमें पदार्थका जो प्रतिबिम्ब पड़ता है वह दर्पणके स्वभावभूत स्वच्यताकी विकृति मात्र होनेसे उपादानकारणभूत दर्पण की ही परिणति है, तथापि उसे दर्पणकी परिणति न बोलकर, लोकमें यही बोला जाता है कि वह अमुक पदार्थका प्रतिबिम्ब है। ऐसा बोलनेका कारण यह है कि दर्पण उस परिणतिमें सपावान