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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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है" और घट कुम्भसारका कार्य है'. यह अतद्भुत व्यवहार आकाशकुसुम जैसा असद्भुत व्यवहार नहीं है, क्योंकि जो कुम्भकारको घटका कारण या कर्ता कहा जाता है और षटको कुम्भकारका कार्य कहा जाता है वह उपर्युक्त प्रकार घटोत्पत्ति में कुम्भकारके सहायक होने और पटके कुम्भकारकी सहायतामें उत्पन्न होनेके आधारपर ही कहा जाता है। अतः "नेत्र रराको जानता है" यह व्यवहार और "कुम्भकार घटका कारण या कर्ता है" व "चट कुम्भकारका कार्य है" ये दोनों प्रकारके व्यवहार असद्भुत व्यवहार होते हुए भी समान नहीं कहे जा सकते हैं, क्योंकि "मेष रसको जानता है" यह असद्भुत व्यकार जहाँ माकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित है वहां "कुम्भकार षटका कारण या कर्ता है' और 'घर कुम्भकारका कार्य है" यह असद्भूत व्यवहार आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित नहीं है, प्रत्युत वह उपर्युक्त प्रकारसे परमार्थ, वास्तविक व सत्य है । यतः आगमसम्मत इस मान्यताको उत्तरपक्ष मानने के लिए तैयार नहीं है अतः इस विषयमें पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंके मध्य विरोष है। तत्त्वजिज्ञासुओंको तथ्य पर ध्यान देना चाहिये।
इस विवेचनसे वह बात अच्छी तरह निर्णात हो जाती है कि उत्तरपक्षका “इस प्रकार नयोंका प्रसंग उपस्थितकर अपरपक्षने जो हमारे" दो द्रश्यों की विवक्षित पर्यायोंमें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध व्यवहारमयसे है निश्चयनयसे नहीं "इस कथनपर टीका की है वह कैसे आगम-विरुद्ध है, इसका विचार किया" यह कथन सर्वथा निःसार सिन्न हो जाता है, क्योंकि उत्तरपक्षके कथनपर पूर्वपक्षने जो टीका की है वह आगमके अनुसार ही की है । जैसा कि उपर्युक्त प्रकाररो स्पष्ट है। कथन ३१ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने त० च० पृ०५० पर "कर्ता-कर्म आदिका विचार" शीर्षकके अन्तर्गत कर्ता और कर्म आदिके विचारफे प्रसंगमें प्रथमतः पूर्वपक्षके त० च० पू०१६ पर निर्दिष्ट बक्तब्यके निम्न अंशको उद्धृत किया है
"इस तरह हमारे आपके मध्य मतभेद केवल इतना ही रह जाता है कि जहां हमारा पक्ष आत्मामें उत्पन्न होनेयाले रागादि विकार और चतुर्गतिभ्रमण कार्यको उत्पत्ति में प्रध्यकमके उदयरूप निमित्त कारण या निमित्तकर्ताको सहकारी कारण या सहकारी कत्तोंके रूप में सार्थक (उपयोगी) मानता है वहां आपका पक्ष उसे उपचरित कहकर उक्त कार्यमें अकिंचित्कर अर्थात् निरर्थक (निरुपयोगी) मानता है और तब आपका पक्ष अपना यह सिद्धान्त निश्चित कर लेता है कि कार्य केवल उपादानकी अपनी सामर्थ्यसे स्वतः ही निष्पन्न हो जाता है । उराको निष्पत्तिमें निमित्त की कुछ भी अपेक्षा नहीं रह जाती है जबकि हमारा पक्ष यह घोषणा करता है कि अनुभव, तर्क और आगम सभी प्रमाणोंसे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि कार्यकी निरुपति उपादान में ही हुआ करती है अर्थात उपादान हो कावंरूप परिणत होता है फिर भी उपादानकी उस कार्यरूप परिणतिमें निमित्तकी अपेक्षा बराबर बनी रहती है अर्थात् उपादानकी जो परिणति आमममें स्वपरप्रत्यय स्वीकार की गयो है वह परिणति उपादानकी अपनी होकर भी निमित्तकी सहायतासे ही होती है। अपने आप (निमित्तकी सहायताकी अपेक्षा किये बिना) नहीं होती। चूंकि आत्माके रागादि रूप परिणमन और चतुर्गतिभ्रमणको आगममें उसका (आत्माका) स्वपर प्रत्यय परिण मन प्रतिपादित किया गया है अतः वह परिणमन आत्माका अपना परिणमन होकर भी द्रवर्मोदयकी सहायतासे ही हुआ करता है"। इसपर उत्तरपक्षने अपना मन्तव्य (त० च० पु. ५१ पर) निम्न प्रकार व्यक्त किया है