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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रत्यासत्ति आदिकी अपेक्षा जिसमें निषित व्यदना : नैमिनिक कालकार किया जाता निक्षेप व्यवहार के अनुसार नाम, स्थापना और द्रव्य विशेषका विषय है उसे भी विषय करता है" । सो इस कथनमें भी पूर्वपक्षको विवाद नहीं है । परन्तु विवादबी बात यह है कि पूर्व पन तो इनके विषयको आकाशकुसुककी तरह कल्पनारोपित नहीं मानकर उस-उस रूप में उसके अस्तित्वको स्वीकार करता है, लेकिन उत्तरपक्ष उसे केवल कथन मात्र कड़कर कल्पनारोपित ही मान लेना चाहता है। इस बातका उत्तरपक्षको अवश्व विचार करना है कि यदि इन नयों और निक्षेपोंका विषय आकाशकुसमकी तरह कलानारोपित मात्र है तो फिर उसे नयों और निक्षेपोंका विषय माना ही कैसे जा सकता है ?
आगे उत्तरपक्षने त. च० प०५० पर यह लिखा है कि "अथवा नैगमनयके स्वरूप द्वारा असद्भुत वमबहारनयको समझा जा सकता है" आदि; सो इसमे इतना ही विवाद है कि पूर्वपक्ष नंगमनयके विषयको आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र नहीं मानता है जबकि उत्तरपक्ष उसे कल्पनारोपित मानता है ।
आगे यहींपर उत्तरपक्षने "भेद द्वारा वस्तुको ग्रहण करना जहां सद्भूत व्यवहारनय कहा है" से लेकर "अतएव व्यवहार कहकर भेद व्यवहार और निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार इन दोनोंको एक कोटिमें रखकर प्रतिपादित करना उचित नहीं है" यहां तक जो कुछ कथन किया है वह सब पूर्व पक्ष को मान्य है। परन्तु पूर्वपक्षका कहना है कि असद्भुत व्यबहारनय के विषयका भी मद्भुत व्यवहारनायके समान अस्तित्व स्वीकार करना अनिवार्य है, भले हो वह उपचरित हो। लेकिन ऐसा मानना उत्तरपक्षको अभीष्ट नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर निमित्तको कार्यके प्रति अकिंचित्कर स्वीकार करनेकी उसकी मान्यता समाप्त हो मायेगी।
आगे यहीं पर उत्तरपक्षने ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध और निमित्त-मैमित्तिक सम्बन्ध इन दोनों में जी अन्तर दिखलाया है उसमें पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु जहां पूर्णपक्ष कुम्भकारमं घटकारणता या घटकर्तृत्वका आरोप चटको उत्पत्तिमें कुम्भकारके सहायक होने के आधारपर स्थीकार करता है वहां उत्तरपक्ष कुम्भकारमें घटकारणता या घटकर्तत्वका आरोप घटको उत्पत्तिमें कुम्भकारके सहायक होनेके बिना ही मान लेता है। इस तरह जहां पूर्वपश्चकी मान्यतामें आरोपित पदार्थ भी आकाशकसमकी तरह कल्पनारोपित मात्र सिद्ध न होकर आरोपित रूपमें परमार्थ, वास्तविक और सत्य सिद्ध होता है यहां उसरपक्षकी मान्यतामें आरोपित पदार्थ आरोपित रूपमें परमार्थ, बास्तविक और सत्य सिद्ध न होकर आकाशकुसुमकी तरह केवल कल्पनारोपित मात्र सिद्ध होता है जो आगम-विरुद्ध है। इसे पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है।
यहां इतनी विशेषता भी समझना चाहिए कि यद्यपि उत्तरपक्ष की इस बातसे हम असहमत नहीं है कि जिस प्रकार जेय स्वरूपसे शेय और ज्ञायक स्वरूपसे ज्ञायक है उसी प्रकार कुम्भकार घटोत्पत्तिमें स्वरूपसे कारण या कर्ता नहीं है व घट स्वरूपसे कुम्भकारका कार्य नहीं है। तथापि यह अवश्य है कि कुम्भकारमें घटोत्पत्तिके प्रति सहायक होने रूपसे योग्यताका सद्भाव है और घटमें कुम्भकारके सहायकत्वमें उत्पन्न होने की योग्यताका सद्भाव है, अन्यथा घटोत्पत्तिमें कुम्भकारको निमित्त और घटको नैमित्तिक कहना असंभव हो जायेगा।
आगे उत्तरपक्षने और लिखा है कि-"नेत्र रूपको जानता है, रसको नहीं । फिर भी उसको रसको जानने वाला कहा जायेगा तो यह असद्भृत व्यवहार ही ठहरेगा" | इरा विषयमें मेरा कहना है कि उत्तरपक्षको मान्य यह असद्भुत व्यवहार आकाशका कुसुम जैसा है। परन्तु "कुम्भकार घटका कारण या का