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शंका-समाधान ३ की समीक्षा
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और निर्जरण करनेकी क्षमता जीवमें आती है। जीवकी भाववती शक्तिका न तो मोहनीय कर्मके उदयमें होनेवाला विभावरूप परिणमन आलय और बन्धका कारण होता है और न ही मोहनीय कर्मके उपशम, क्षय मा क्षयम में होने वाला भाववती शक्तिका स्वभावरूप शुद्ध परिणमन संदर और निर्भराका कारण होता है । इतना अवश्य है कि जोधको भाववतोशक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्वश्रद्धानरूप शुभ और अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ तथा मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्त्वज्ञानरूप शुभ भोर अतत्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन अपनी 'शुभरूपता और अशुभता आधारपर यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मक आस्रव और बन्धके पर म्परया कारण होते हैं व तत्वज्ञान व्यवहार सम्यग्दर्शन के रूपमें तथा तत्वज्ञान व्यवहारसम्यग्ज्ञानके रूपमें यथायोग्य hits आय और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोके संवर और निर्जराके भी परम्परया कारण होते हैं।
इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि क्रियावतीशक्ति के परिणमनस्वरूप जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियाँ यथायोग्य अशुभ और शुभ कमौके आलव और बन्धका साक्षात् कारण होती हैं तथा अश्यारूप अशुभ प्रवृत्तिमे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्ति यथायोग्य कर्मोंके आलव और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जरणका साक्षात् कारण होती है एवं जीवको क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप तथा दयारूप शुभरूपता और अदयारूप अशुभरूपतासे रहित जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक योगरूप प्रवृत्ति मात्र सातावेदनीय कर्मके आस्त्रचपूर्वक केवल प्रकृति और प्रदेशरूप बन्धका कारण होती है तथा योगका अभाव कर्मो के संवर और निर्जरणका कारण होता है ।
इस सामान्य समीक्षा के सम्पूर्ण विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जीव-वया पुण्यरूप भी होती है. जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चय धर्मरूप भी होती है व इस निश्चय धर्मरूप जीवदया की उत्पत्ति में कारणभूत व्यवहार धर्मरूप भी होती हैं। अर्थात् तीनों प्रकारकी जीवदयाएँ अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और महत्व रखती हैं ।
२. प्रश्नोत्तर ३ के प्रथम दौरकी समीक्षा
प्रश्न प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षको दृष्टि
पूर्वपक्षद्वारा प्रकृत में किये गये विवेचनोंसे यह बात स्पष्ट होती है कि आगममे जीवदया पुण्यभूस जीवदया जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्वमघर्मरूप जीवदया और इस निश्चयत्ररूप जीवदया की उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप जीवदया के रूप में जो तीन प्रकार बतलाये गये हैं उन्हें पूर्वपक्ष तो मानता है, परन्तु उनमें से उत्तरपक्ष केवल पृथ्यभूत जीवदयाको मान्य करता है, धर्मरूप जीवदयाको नहीं मान्य करता है । इतना हो नही, वह पूर्वपक्षको धर्मरूप जीवदयाको मान्यताको मिथ्यात्व कहता है । यह ध्यान में रखकर ही पूर्वपक्षने तत्वचर्चा के अवसरपर यह प्रश्न उपस्थित किया था कि "जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?" इस बात को मैं सामान्य समीक्षामें स्पष्ट कर चुका हूँ ।
उत्तरपक्षका उत्तर विसंगत भी है, अर्धसम्मत भी है और अनुचित भी है—
उत्तरपक्ष ने अपने उत्तर में लिखा है दयाको पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं है"
स०-३२
कि "इस प्रश्नमें यदि 'धर्म' पदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवतथा आगे लिखा है कि "यदि इस प्रश्नमें 'धर्म' पदका अर्थ