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अनियत और उसकी समीक्षा
(६) पण्ड गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयाप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेश निवृत्तिपुण्यमय शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको पष्ठ गुणस्थान प्राप्त
पूर्व कर्तव्य
नहीं होता।
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(७) वण्ठ गुणस्थानसे आगे गुणस्थानों में जीव आरम्भीपापमय अश्वारूप अशुभ प्रवृत्तिले सर्वथा निवृत्त रहता है तथा पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी बाह्यरूपमें नहीं करते हुए अन्तरंगरूप में ही तब तक करता रहता है जब तक नवम गुणस्थान में उगको अप्रत्यास्थानावरण, प्रत्यास्थानावरण और ज्वलनायकी क्रोध प्रकृतियोंके सर्वथा उपशम या श्रय करनेकी क्षमता प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि जीवके अप्रत्या पानावरण क्रोधकर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थानके अन्त समयतक रहता है व पंचम गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है। इसी तरह जीवके प्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर पंचम गुणस्थानके अन्त समयतक रहा करता है व श्रेष्ठ गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम हो रहा करता है तथा इन सभी गुणस्थानों में संज्वलन क्रोध कर्मका उदय ही रहा करता है परन्तु संग्लनको चकर्मका उदय व अप्रत्यास्थानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोधकमौका क्षयोपधाम तब तक रहा करता है जब तक नवम गुणस्थानमें इनका सर्वथा उपशम या अब नहीं हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरण को कर्मका अन्ध चतुर्य गुणस्थान तक ही होता है। प्रस्यास्यानावरण क्रोध कर्मका बन्य पंचन गुणस्थान तक हो होता है और संज्वलन को कर्मका अन्य नवम गुणस्थानके एक निश्चित मान तक ही होता है। इन सबके बन्धका कारण जीव की भाववती शक्तिके हृदय और मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाले बयायोग्य परिणमनसे प्रभावित जीवकी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक यथायोग्य प्रवृत्तिरूप परिणमन ही है। जोव तु गुणस्थानमें जब तक आरंभीपापमय अदयाप अशुभ प्रवृत्तिका यथायोग्य रूप में एकदेशस्याग नहीं करता तब तक तो उसके अस्वास्थानावरण क्रोम कर्मका बन्ध होता ही रहता है। परन्तु वह जीव यदि आरंभोपापमय अदयाप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेव स्पाग कर देता है और उस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस अप्रत्याख्यानावरण को कर्मके क्षयोपशनको क्षमता प्राप्त हो जाती है तो उस जीव में उस क्रोध कर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था चतुर्थ गुणस्थानके समान प्रथम और तृतीय गुणस्थानों में भी लागू होती है। इसी तरह जीव पंचम गुणस्थान में जब तक आरंभीचापमय अदलारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग नहीं करता तब तक तो उसके प्रत्यास्थानावरण क्रोधकर्मकाबन्ध होता ही है परन्तु यह जीव यदि आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग कर देता है और इस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस प्रत्याख्यानावरण क्रोच कर्मके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती है तो उस जीव उस कोच कर्मक वन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था पंदन गुणस्थानके समान प्रथम तृतीय और चतुर्थ गुणस्थानों में भी लागू होती है। पंचम गुणस्थानके आगे गुणस्थानोंमें तब तक जीव संज्वलनबन्ध करता रहता है जब तक वह नवम गुणस्थान में बन्धके अनुकूल अपनी मानसिक, वाचनिक और काविक प्रवृत्ति करता रहता है और जब यह नवन गुणस्थान में संजालकोधकर्मके उपशम या क्षयकी क्षमता प्राप्त कर लेता है तो उस जीवके उस शोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है ।
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इतना विवेचन करनेमें मेरा उद्देश्य इस बातको स्पष्ट करनेका है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वानिक और कायिक अदयाप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियोंके रूपमें होनेवाले परिणमन ही creen आन और बन्धमें कारण होते हैं व उन प्रवृत्तियोंका निरोध करनेसे हो उन क्रोव कर्मोका संवर