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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसको समीक्षा वीतराग परिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है" सो यह उत्तर विसंगत है, क्योंकि प्रश्नमें केवल इतना हो पूछा गया है कि जोवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? जिसका आशय यही होता है कि आगममें जिस प्रकार जीवदयाको पुण्यरूप मान्य किया गया है उसी प्रकार उसे वहाँ धर्मरूप भी मान्य किया गया है। अत एव पूर्वपक्षने प्रश्न भी इसी अभिप्रायसे उपस्थित किया था। परन्तु प्रश्नका सौघा उत्तर न देकर प्रश्नको धर्मपदकी व्याख्याम उलझा देना उत्तरपक्षके लिये शोभाकी बात नहीं कही जा सकती है।
उत्तरपक्षने अपने उत्तरके समर्थन में परमात्मप्रकाश पद्य २-७१ और उसकी टोकाको तथा समयसार गाथा २६४ और उसकी आचार्य अमृतचन्द्रकृत टोकाको उपस्थित किया है। परन्तु प्रश्नके समाधानमें उनका कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि परमात्मप्रकाशका पद्य और उसकी टीकासे जीवश्याको पुण्यरूपताका तो समर्थन होता है, परन्तु उनसे जीवदयाकी धर्मरूपताका निषेध नहीं होता। इसी तरह समयसारकी गाथा और उसकी टीकासे केवल पुण्यभावरूप जीवदयाका आरव और बन्धतत्वमें अन्तर्भाव तो सिद्ध हो सकता है, परन्तु इनसे जीवदयाकी धर्मरूपताका निषेध सिद्ध नहीं होता। एक बात और है कि जीवदयाको पुण्यरूप स्वीकार करने और उसका आनन और बन्धतत्वमें अन्तधि माम्म करनेके विषयमें दोनों पक्षों के मध्य विवाद भी नहीं है, क्योंकि गतीश भी जीवदया मेको नगर पुक वाल और बन्धतत्वमें हो अन्तभर्भाव स्वीकार करता है । यह बात पूर्वपक्ष के द्वितीय और तृतीय दौरोंसे स्पष्ट होती है। विवादका विषय तो केवल यह है कि परमात्मप्रकाशके पद्य २-७१ और समयसारने पद्य २६४ में तथा उनकी टोकाओंसे जिस प्रकार जीवदयाको पुण्यरूपता सिद्ध होती है और उस पुण्यरूप जीवदयाका आस्रव और बन्धतत्वमें अन्तर्भाव सिद्ध होता है उसी प्रकार पूर्वपक्षद्वारा अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें उपस्थित धवल पुस्तक १३ के पृष्ठ ३६२ पर निर्दिष्ट आचार्य वीरसेनके "करुणाए जीवसहावस्स कम्मणिदसविरोहादो" वचनसे जीवदयाको जीवके फुख स्वभावभूत निश्चयधर्मरूपता व द्रव्यसंग्रहकी गाथा ४५ से उसको व्यवहारधर्मरूपता भी सिस होती है । परन्तु उत्तरपक्ष जोवदयाको पुण्यरूप मानकर भी धर्मरूप नहीं मानता है। फलतः उत्तरपक्षका उत्तर अर्धसम्मत सिद्ध होता है।
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि उत्तरपक्षके प्रथम दौर में किये गये कयनसे ऐसा भी ध्वनित होता है कि यह पक्ष अपने प्रथम दौरमें जीवदयाकी पुण्यरूपताको स्वीकार करके उसी पुण्यरूप जीवदयाकी धर्मरूपताका निषेध करना चाहता है सो उसका यह प्रयत्न निरर्थक है, क्योंकि पूर्वपक्ष स्वयं पुण्यभूत जीवदयाको धर्मरूप नहीं मानता है और उसका प्रश्न भी पुण्यभूत जीवदयाकी धर्मरूपताके विषय में नहीं है, यह बात उत्तरपक्षको उत्तर देनेमे पूर्व ही सोच लेना चाहिए थी। प्रश्नको बिना समझे उसका उत्तर देना विद्वत्ताका चिह्न नहीं है। उत्तरपक्षने प्रायः सभी प्रश्नोंका उत्तर देने में अपनी ऐसी ही स्थितिका प्रदर्शन किया है । तत्त्वनिर्णय करनेके प्रसंगमें उसकी इस प्रकारको स्थिति अनुचित ही मानने योग्य है।
३. प्रश्नोत्तर ३ के द्वितीय दौरकी समीक्षा द्वितीय दौरमें पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने अपने द्वितीय दौर, आगम प्रमाणोंके आधारपर जीवस्याकी पुण्यरूपताकी स्वीकृतिके साथ उसको शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूपताको वे इस शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदयाको उत्पत्ति में