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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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जा सकती । अन्यथा योग निरोध करके केबली जिन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यानको क्यों ध्याते ? जिस जिनागम में क्षायिक चारित्रके होनेपर भी योगका सद्भाव होने से क्षायिक चारित्रको सम्पूर्ण चारित्र रूप से स्वीकार नहीं किया गया हो उस जिनागमसे यह फलित करना कि केवली जिनकी चलने आदि रूप क्रिया मोक्षका कारण हैं, उचित नहीं हूँ । प्रत्युत इससे यही मानना चाहिए कि केवली जिनके जब तक योग और तदनुसार बाह्य क्रिया है तब तक ईर्यापथ आस्रव ही हैं ।"
आगे उसी पर उतरपक्षने लिखा है - "केवली जिन समुचात अपने वीर्यविशेषसे करते हैं और उसे निमित्त कर तीन कर्मोका स्थिति घात होता है । अन्तरंग में वीतराग परिणाम नहीं है और वीर्यविशेष भी नहीं है। फिर भी यह क्रिया हो गई और उसे निमित्तकर उक्त प्रकारसे कर्मोंका स्थितिघात ऐसा नहीं है !"
गया,
इसकी समीक्षा में मुझे मात्र इतना ही कहना है कि पूर्वपाने जिस अभिप्राय से त० ब० पृ० ८४ पर अपना कथन किया है उससे विपरीत आशय ग्रहण करके ही उत्तरदाने उसकी आलोचना करनेका प्रयत्न किया है जो अयुक्त हैं। उस कथन में पूर्वपक्षका क्या आशय है, इसे ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है ।
यह तो सुनिश्चित है प्रकृतिवन्ध और
तात्पर्य यह है कि पूर्व पशन त० च० पृ० ८५ पर जो कथन किया है उसमें उसका अभिप्राय यह है कि संसारका कारणभूत कर्मबन्न प्रदेशबन्ध के साथ होने वाला स्थिति और अनुभागबन्ध हो होता है । केवल प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध संसारका कारण नहीं होता | इसलिए केवलीजिनको क्रिया प्रकृतिबन्ध और प्रदेशवन्त्र रूप कर्मबन्धका कारण होकर भी नियमसे संखारवृद्धि कारण नहीं होती है । इस अपेक्षासे ही उसे मोक्षका कारण पूर्वपक्षने माना है । उत्तरपक्षने पूर्वपाके' कथनको आलोचना करनेके प्रसंग में उक्त अनुच्छेदों में जो कुछ लिखा है उससे पूर्वपक्ष अनभिज्ञ है या वैसा वह नहीं मानता है, ऐसी बात नहीं है। इसलिये पूर्वपक्ष कथन की आलोचनासे पूर्व उसका कर्तव्य था कि प्रवचनसार गाथा ४५ के अभिप्रायपर विचार करता, क्योंकि जिस प्रकारसे उसने पूर्व पके नको आलोचना की है उस प्रकारसे तो प्रवचनसार गाथा ४५ भी उसका आलोच्य हो जाती है जो संभवतः उत्तरपक्षको अभीष्ट नहीं है। इसलिये मैं कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षकी इस विषय में सिर्फ विरोध के लिए विरोध करनेकी नीति उचित नहीं मानी जा सकती है ।
कथन १७ और उसकी समीक्षा
आगे त० च० पृ० ९२ पर उस रपक्षने पूर्वपाके त० च० पृ० पृ० ३०२ में निर्दिष्ट बचनको उद्धृत कर किये गये विवेचनको उपस्थित करके उसके कुछ लिखा है उसके संबंध में भी मेरा यही कहना है कि उत्तरपक्षने वह भी केवल करने की नीतिको अपना कर ही लिखा है क्योंकि उससे भी पूर्वपक्षकी दृष्टिका नहीं है।
८४ पर धवलसिद्धान्त पुस्तक २
समाधान के रूपमें जो विरोधके लिए विरोध निराकरण होना संभव
इस प्रश्नोत्तर में सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि उत्तरपक्षने पूर्वपदाकी आलोचना करनेका मूल आधार जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाको बनाया है जबकि पूर्वपक्षका प्रश्न शरीरके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रिया से सम्बद्ध है। उत्तरपक्ष इस बातको अन्त अन्त तक नहीं समझ पाया है या समझ कर भी उसकी उपेक्षा ही करता आया है। अतः अन्त में भी उसने यही लिखा है कि "शरीरकी क्रिया परद्रव्य