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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा (पद्-गल) की पर्याय होनेसे उसका अजीव तत्त्व में अन्तर्भाव होता है" यह तो यही कहावत हुई कि 'पंयोंकी बातें सिर माथे पर पनाला वहींका वहीं रहेगा।'
इसी तरह उसने वहींपर जो यह लिखा है कि "अतः उसे आत्माकै धर्म-अधर्ममें उपचारसे निमित्त कहना अन्य बात है। वस्तुत: यह आत्मा अपने शुभ-अशुभ और युद्ध परिणामोंका कर्ता स्वयं है । अतः बही उनका मुख्य हेतु है ।" सो मैं पूर्व में स्पष्ट कर चुका हूँ कि पूर्वपक्षने अपने वक्तव्योंमें शरीरकी क्रियाको आत्माके धर्म-अधर्ममें उपचरित हेतु नहीं मानकर शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको ही उपरित हेतु माना है क्योंकि आगम में ऐसा ही मान्य किया गया है। इसलिये उत्तरपक्षका शरीरको क्रियाको आत्माके धर्म-अधर्म में उपरित कारण मानना मिथ्या ही है। अतः उत्तरपक्षको शरीरफे मयोगसे होनेवाली जीवको क्रियाको आत्माके धर्म-अधर्मका कारण मानना चाहिये । यह सब विषय में पूर्वमें स्पष्ट कर चुका हूँ । पूर्वपक्षने इस बातका कहीं विरोध नहीं किया है कि "वस्तुतः यह आत्मा अपने शुभ-अशुभ और शुद्ध परिणामोंका कर्ता स्वयं है, अतः वही उनका मुख्य (निश्चय) हेतु है ।" पूर्वपक्ष का कह्ना तो यह है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया आत्माकी धर्म-अधर्मरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तवारण होती है वह वहाँ अविचित्कर नहीं रहती है।
१. प्रश्नोत्तर ३ को सामान्य समीक्षा
पूर्वपक्षका प्रश्न-जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?-ता च पृ० ९३ ।
उत्तरपक्षका उत्तर-(क) इस प्रश्नमें यदि "धर्म" पदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवदयाको पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि जीवदवाकी परिगणना शुभपरिणामोंमें की गई है और शुभ परिणामको आगममें पुण्यभाव माना है ।-त० च पृ० ९३
(ख) यदि इस प्रश्नमें "धर्म" पदका अर्थ वीतराग परिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिच्याव है, क्योंकि जीवदया पुण्यभाव होने के कारण उसका आस्रव और बन्धतत्वमें अन्तर्भाव होता है, संवर और निर्जरा तत्बमें अन्तर्भाव नहीं होता ।--त. च. पृ० ९३ जीवदयाके प्रकार
(१) जीवदयाका एक प्रकार पुण्यभान रूप है । इसे आगमके आधारपर उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष भी मानता है तथा उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्ष यह भी मानता है कि पण्यभाव रूप होने के कारण उसक अन्तर्भाष आस्रव और बन्धतत्व होता है, संवर और निर्जरामें अन्तर्भाव नहीं होता। इसके सम्बन्ध दोनों पक्षोंमें इतना मतभेद अवश्य है कि जहाँ पूर्वपक्ष पुण्यभाष रूप जीवदयाको व्यवहारधर्म रूप जोव दयाकी उत्पत्ति में कारण मानता है वहाँ उस रपक्ष इस बातको स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं है। पुण्यभाव रूप जीबदसा व्यवहारधर्म का जीव दयाकी उत्पत्तिमें कारण होती है. इस बातको आगे स्पष्ट किया जायेगा।
(२) जीवदयाका दुसरा प्रकार जीवके शुद्ध स्वभावभत निश्चयधर्मरूप है । इराकी पुष्टि पूर्वपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें धवल पुस्तक १३ के पृष्ठ ३६२ पर निर्दिष्ट निम्न वचनके आधारपर की है