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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इसका उस रपक्ष द्वारा किया गया अर्थ निम्न प्रकार है'जिसके द्वारा मोहित किया जाता है यह मोहनीय कर्म है । शंका- ऐसा होने पर जीवको मोहनीय कर्मपना प्राप्त हो जाता है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि जीवसे अभिन्न ( विशेष संयोगरूप, परस्पर विशिष्ट काही ) कर्मसंज्ञक पुद्गलद्रव्य में उपचारसे कर्त्तापिनेका आरोप कर वैसा कहा है ।"
इस अर्थ में उत्तरपक्षनं 'मुह्यत इति मोहनीयमम्' इस अंशका 'जिसके द्वारा मोहित किया जाता है। वह मोहनीय कर्म हूँ ।' वह अर्थ किया है सो वह अर्थ ठीक नहीं है। इसके स्थानमें उसे उसका वह अर्थ करना था कि 'जो मोहित किया जाता है 'या' जो मोहित होता है ।' क्योंकि यह अर्थ करनेसे ही धवलाके उक्त शंका-समाधानरूप वचनके अर्थको संगति होती है। उत्तरपक्षको यह भी ज्ञात होना चाहिए या कि 'मुह्यत इति मोहनीयम्' यह प्रयोग कर्मके विषयमें किया गया है। इसलिए उसका यही अर्थ है कि 'जो मोहित किया जाता है वह मोहनीय है ।'
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि धवलाके उक्त वचनमें उपचारका अर्थ नहीं बतलाया गया है, तथा उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "इस आगम वचनमें' 'उवपारेण' और 'आरोबिय' पद ध्यान देने योग्य हैं । स्पष्ट है कि कार्यका निष्पादक वस्तुत: उपादानकर्ता हो होता है । निमित्त में तो उपचारसे कर्त्तापका आरोप किया जाता है।" सो इसमें विवाद नहीं है, परन्तु इससे निमित्तको किचित्कर नहीं सिद्ध किया जा सकता हूँ ।
४. प्रश्नोत्तर एकके तृतीय बोरकी समीक्षा
तृतीय दौर में पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्ष तृतीय दौर में सर्वप्रथम अपने प्रश्नका आशय स्पष्ट करते हुए यह कथन किया है कि उत्तरपक्षने अपने प्रथम और द्वितीय दोनों दौरोंमें प्रश्नका उत्तर नहीं दिया है। इसके पश्चात् "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् " इस पद्म नन्दिपंचविशतिका (२३-७ ) के आधारपर यह सिद्ध किया है कि वस्तुकी विकारी परिणति दूसरी वस्तुका सहयोग प्राप्त होने पर ही होती है। उसका सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप नहीं हो जाती । इसके भी पश्चात् "सदकारणवन्नित्यम् - " आप्त परीक्षा कालिका २ की टीका आधारसे बतलाया है कि जीवक विकारी परिणति यदि कर्मोदय के बिना मानी जाए तो उपयोग के समान जीवका स्वभाव भाव हो जानेसे यह कभी नष्ट नहीं होगी। इसके जागे विविध आगमप्रमाणोंके वलये इस बातका समर्थन किया है कि जीवमें उत्पन्न होनेवाले विकारका निमित्त पुद्गलकर्मका उदय है और अन्तमें उत्तरपक्ष के द्वितीय दौर की आलोचनापूर्वक आगमप्रमाणोंके आधारपर सिद्धान्तपक्ष की पुष्टि की है ।
तृतीय दौर में उत्तरपक्षकी स्थिति
उत्तरपक्ष ने अपने तृतीय दौर में पूर्वपक्ष कथनकी उपेक्षा करते हुए प्रश्न उत्तरमें उसी दृष्टिकोण • को अपनाया है जिस दृष्टिकोणको वह अपने प्रथम और द्वितीय दौरोंमें अपना चुका है। इसलिए उसने अपने तृतीय दौर में पूर्वपक्ष के प्रश्नका जो उत्तर दिया है उससे भी प्रश्नका समाधान नहीं हो सका है। अर्थात् उत्तर पक्ष ने अपने तृतीय दौर में भी पूर्वपक्ष के प्रश्नके उत्तरमे प्रथम और द्वितीय दौरोंकी उन्हीं बातों को १. देखो व्र० च० पृ० ६ ।