________________
शंका-समाधान १ की समीक्षा
इसका अर्थ है कि नियमसे जिसके अनन्तर जो होता है वह उसका सहकारी कारण है और इस कार्य । इस ज्वलन्त प्रमाणसे भी सहकारी कारणको कार्यकारिता स्पष्ट है। इसी तृतीय भागमें उत्तरपक्षने कार्योंमें भाचार्य समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रके उद्धरण द्वारा बाह्य और आम्पन्तर उपाधियों (कारणों) की समग्रताको स्वीकार किया है, फिर भी उसने लिया है कि ''जब निश्चय उपादान अपना कार्य करता है तब अन्य द्रव्य पर्याय द्वारा उसका व्यवहार हेतु होता है।" उसका यह सब कथन पूर्वापर विरुद्ध और पाठकोंको गुमराह करनेवाला है। जब सहकारी कारण अकिंचित्कर सिद्ध हो नहीं होते, तो उत्तरपक्षका धुमावमें छालना उचित नहीं है। इस पर हम आगे विस्तारपूर्वक विचार करेंगे। इसी प्रकार उसने इसी भागमें द्रव्यलिंग और भालिंगकी भी अप्रासंगिक चर्चा उठायी है, जो यहाँ सर्वथा अनुपयुक्त है। फिर भी हम उसके विषयमे भी आगे विचार करेंगे । चतुर्थ भागको समीक्षा
इस भागमें पूर्वपक्ष द्वारा प्रवचनसार गाथा १६९ की अमृतचन्द्रीय टीकाके 'स्वयमेव' पदका अर्थ 'अपने रूप' करनेपर अनावश्यक विवाद उठाते हुए उत्तरपक्षने लिखा है कि "प्रवचनसार गाथा १६९ में 'स्वयमेव' पदका अर्थ स्वयं ही है अपने रूप नहीं । उत्तरपक्ष इससे यह बतलाना चाहता है कि उपादानकी कार्यरूप परिणति निमित्तका सहयोग प्राप्त किये बिना स्वयं ही अर्थात् अपने आप ही होती है। उसकी इस मान्यताका निराकरण प्रतिर्शका ३ में विस्तारसे किया है तथा 'स्वयमेव' पदके अर्थपर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है और इस समीक्षामें भी 'स्वयमेव' पदके अर्थ पर आगे प्रकाश डाला जायगा । पंचम भागकी समीक्षा
पूर्वपक्षने लिखा था कि 'समयसार गाथा १०५ में जो उपचार शब्द आया है वह इस अर्थका छोतक है कि पुद्गलका परिणमन पुद्गलमें ही होता है, जीवमें नहीं होता है । किन्तु जीवके परिणामोंका निमित्त पाकर बह होता है। अर्थात जीव पदगलकमौका उपादानकर्ता नहीं, निमित्तकता है।' इसपर उत्तरपक्षाने इस पंचम भागमें लिखा है कि "समयसार गाथा १०५ में उपचारका जो अर्थ प्रथम प्रश्न के उत्तरम किया गया है वह अर्थ संगत है। किन्तु प्रयत्न करनेपर भी वहाँ उसके द्वारा किया गया उपचारका वह अर्थ संगत या असंगत रूपमें उपलब्ध नहीं होता। मालूम नहीं, उत्तरपक्ष इस प्रकारके गलत वक्तव्य देकर दूसरोंकी आंखोंमें धूलिप्रक्षेपकी चेष्टा क्यों करता है ? इस विषयमें भी हम आगे सप्रमाण विचार करेंगे। .
वहाँ इतनी बात अवश्य स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने इसी पंचम भागके अन्त में धवला पु० ६ पृ० ५९ का जो उद्धरण दिया है उसमें 'मृह्यत इति मोहनीयम्' इस अंदाका उसने भ्रमवश विपरीत अर्थ किया है । धवला पुस्तक ६, पृ० ५९ का वह वचन और उसका उत्तरपक्ष द्वारा किया गया अर्थ निम्न प्रकार है।
"मुह्यत इति मोहनीयम्' एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पैसज्जदि ति णासंकणिज्जं जीवादो अभिण्णमिमह पोग्गलदव्ये कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तधा उत्तीदो।'
१. देखो, त० ० १०९। २. देखो, त० च पृ०९। ३. त० च०, पृ० ६।