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काका-समाधान १ की समीक्षा
पर ही होती है। कार्योत्पत्तिकी यह प्रक्रिया प्रत्येक वस्तुमें अनादिकालसे चली आई है और अनन्तकाल तक चली जायेगी । यद्यपि कार्योत्पत्तिकी ऐसी ही प्रक्रियाको पूर्वपशकी तरह उत्तरगक्ष भी स्वीकार करता है। परन्तु पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंकी मान्यताओंमें अन्तर यह है कि जहां उत्तरपक्ष यह मानता है कि कार्योत्पत्ति तो बस्तुको योग्यतानुसार होती है और सर्वदा उसके अनुकल ही निमित्त मिलते रहते हैं वहाँ पूर्वपक्ष यह मानता है कि वस्तुमें कार्योत्पत्तिकी योग्यताके अनुसार कार्योत्पत्तिके होनेपर भी जब जैसे निमित्त मिलते है उनके अनुसार ही उस योग्यताके आधारपर कार्य उत्पन्न हुक्षा करते हैं। जैसा कि उपर्युक्त प्रमेयकमलमार्तण्डके उद्धरणसे प्रकट है । कार्योत्पत्तिके विषयमें उत्तरपक्षका एक अन्य दृष्टिकोण और उसका निराकरण
उत्तरपक्षने द्वितीय दौरके इसी भागमें इष्टोपदेशके पद्य ३५ और उसकी टीकाको उद्धृत कर उनका अर्य करते हुए अन्त में इस प्रकारका निष्कर्ष निकाला है कि "इस प्रकार इष्टोपदेशके उक्त आगम वचन और उसकी टीकासे स्पष्ट शात होता है कि निमित्तकारणों में पूर्वोक्त प्रकारसे दो भेद होने पर भी उनकी निमित्तता प्रत्येक व्यके कार्यके प्रति समान है। कार्यका साक्षात उत्पादक कार्यकालकी योग्यता ही है, निमित्त नहीं ।"-त. प. पृ०८।
उत्तरपक्ष द्वारा निकाले गए इस निष्कर्षकी समीक्षा करनेसे पूर्व यहां उसके द्वारा उक्त पद्य और उसकी टीकाके किये गमे अर्थ पर विचार कर लेना आवश्यक है
१. उक्त पद्य ( ३५ ) का अर्थ करते हुए उत्तरपक्षने लिखा है कि "अन्य द्रव्य अपनी विवक्षित पर्यायफे द्वारा उस प्रकार निमित्त है जिस प्रकार धर्मास्तिकाय गतिका निमित्त है।" -त. च पृ1
इसमें "अपनी विवक्षित पर्मायके द्वारा" इस अंशका बोधक कोई पद पद्य में नहीं है। यह पद्यार्थी अतिरिक्त है जो अनावश्यक है। यदि उत्तरपक्षकी दृष्टिमें वह आवश्यक है तो एक तो उसका निर्देश पद्य में किसी पदके द्वारा किया जाना चाहिए था। दूसरे, इस अंशको धर्मास्तिकायपदके साथ भी सम्बद्ध करना था । मालूम पड़ता है कि "अन्य द्रव्य" पदके साथ उसे सम्बद्ध करने और "धर्मास्तिकाय" पदके साथ सम्बद्धन करने में उत्तरपक्षका अभिप्राय अन्य द्रव्य और धर्मास्तिकायमें प्रेरक निमित्तता और उदासीन निमित्त ताका भेद दिखलाकर उनमें अकिपित्करताके रूपमें समानता बतलानेका है । परन्तु वह प्रमाणसंगत नहीं है, क्योंकि उनमें कार्यकारिताकी सिद्धि और अकियित्करताका निषेध पुष्ट प्रमाणों द्वारा किया जा चुका है।
२. टीकागत "बजे पतत्यपि" इत्यादि पद्य का अर्थ उत्तरपक्षको इस प्रकार करना चाहिए था कि जिसके भयसे सम्पूर्ण लोक दोलायमान हो जाता है और जिसका मार्ग किसीसे अवरुद्ध नहीं होता, उस बाके गिरने पर भी विवेकरूपी प्रदीपसे मोहरूपी महान अंधकारको नष्ट करनेवाले प्रशमवान् सम्यग्दृष्टि जीव जब योगसे चलायमान नहीं होते है तो वे अन्य परिषहों ( उपद्रवों ) से कैसे चलायमान हो सकते हैं?
३. "नन्वेवं बाह्यनिमित्तक्षेपः प्राप्नोतीत्यत्राह- अन्यः पुनर्गुरुविपक्षादिः प्रकृतार्थसमुत्पादभ्रंशयोनिमितमानं स्यात् । तत्र योग्यताया एव साक्षात् साधवात्वात" इस उद्धरणका अर्थ आवश्यक होते हुए भी उत्तरपक्षने नहीं किया है। वह अर्थ निम्न प्रकार है