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जयपुर { खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा "यदि केवल योग्यताके पलसे ही कार्योत्पत्ति स्वीकार की जाये तो बहो बाह्म निमित्तोंको सापेक्षता समाप्त हो जायेगी। सो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि अन्य गुरु व विपक्ष आदि प्रकृतार्थके उत्पाद और भ्रंशमें निमित्त मात्र होते हैं । योग्यता ही साक्षात् उत्पादक हुआ करती है।"
यहाँ निमित्तका अर्थ सहकारी कारण है यह जानकारी टीकाके "धर्मास्तिकायस्तु गत्युपग्रह प्रव्यविशेषस्तस्याः सहकारिकारणमा स्यात्" इस कथनसे प्राप्त होती है ।
इस तरह "नन्वे" इत्यादि कयनसे और उसमें पठित "योग्यतायाः" पदका "साक्षात्"पद विशेषण होनेसे निमित्तोंकी कार्यकारिता ही सिद्ध होती है, जिसका निषेध उत्तरपक्ष करना चाहता है, क्योंकि "योग्यतायाः" पदका "साक्षात्" विशेषण तभी सार्थक हो सकता है जब निमित्तोंको कार्य प्रति कार्यकारी माना जाए । मालूम पड़ता है कि इसीलिए "नम्वेद'' इत्यादि कथनका अर्थ उत्तरपक्षने अपने बक्सम्यमें नहीं किया है।
४. "कस्याः को यथा" इत्यावि टीकाका अर्थ उत्तरपक्षने जो किया है उसमें "तवैकल्ये तस्याः केनापि फारस्यत्वाद" श यादमा बसन किया है कि "उसके विरुद्ध योग्यता होने पर उसे कोई भी करने में समर्थ नहीं है।"'सो इसके स्थान में यह अर्थ करना चाहिए कि "उस योग्यता (गतिशक्ति) के अभावमें उसे (उस गतिशक्तिको) कोई भी करने में समर्थ नहीं है ।"
"तवैकल्ये" पक्षका अर्थ 'उसके विरुद्ध योग्यता होने पर" करना सर्वथा गलत है। यहाँ उसका अर्थ तो "उस योग्यता ( गतिशक्ति ) का अभाव होने पर" सन्दर्भसंगत है और टीकाकारको भी वही विवक्षित है।
इष्टोपदेश पद्य ३५ और उसकी टीकाके अर्थ पर ऊपर जो दष्टि डाली गई है उसका उद्देश्य यही है कि इससे उत्तरपक्षके द्वारा निकाले गये निष्कर्ष कितने अप्रामाणिक है, यह प्रकट हो जाता है। आगेके विवेचनसे यह और भी स्पष्ट हो जाता है।
उत्तरपक्षने इष्टोपदेशके उक्त पद्म और उसकी टीकासे जो निष्कर्ष निकाले हैं उनसे उन तीन बातोंका संकेत मिलता है जिनसे उत्तरपक्षका कार्योत्पत्ति सम्बन्धी दृष्टिकोण ज्ञात हो जाता है ।
१.पहली बात यह है कि उत्तरपक्ष उक्त पद्य ३५ और उसकी टीका आधारपर निमित्तोंके प्रेरक और उदासीन दो भेद स्वीकार कर दोनोंमें समानता मानता है ।
२. दूसरी बात यह है कि वह उनत पद्य और उसकी टीकाके आधारपर सिद्ध समानताको प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी अकिचित्करताके रूपमें स्वीकार करता है।
३. तीसरी बात यह है कि कार्योत्पत्तिकी योग्यतासे यह नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्तिको न ग्रहण कर कार्यकालकी योग्यताके रूपमें अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिको स्वीकार करता है।
इन तोनों बातोंमें पहली और दूसरी दोनों बातोंके विषयमें आगमप्रमाणोंके आधारपर पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि नरक और उदासीन दोनों निमित्तोंकी स्वीकृति निर्विवाद है और उनमें समानताको स्वीकृति भी निर्विवाद है। परन्तु दोनोंकी समानताको जहाँ उत्तरपक्ष कार्यके प्रति उनकी अकिंचित्करताके
१. देखो, त० च० पू० ८।