________________
शंका-समाधान १ की समीक्षा
रूपमें स्वीकार करता हूँ वहाँ पूर्वपक्ष उनकी समानताको कार्योत्पत्ति के प्रति कार्यकारिताके रूप में स्वीकार करता है । यह भी आगमप्रमाणों के आधारपर पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है ।
तीसरी बात विषयमें हमारा कहना है कि उत्तरपक्षने इष्टोपदेश पद्य ३५ और उसकी टीका में 'योग्यता' शब्दसे जो कार्यकालकी योग्यता के रूप में अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिको ग्रहण किया है। वह संगत नहीं है, क्योंकि उक्त पद्म और उसकी टीकासे ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता है, जिसके आधारपर 'योग्यता' शब्द से कार्यकालकी योग्यताको ग्रहण किमा जाम ।
उक्त पद्म और उसकी उद्धृत की गयी टीका में कोई भी ऐसा पद या वाक्य नहीं है, जो कार्यकालको योग्यताके रूपमें अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिका ग्रहण प्रकट करें और योग्यतासे नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्तिका निषेध करें। यह गहराईसे देखनेपर स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। प्रमेयकमलमार्तण्डके उपर्युक्त उद्धरण से यह दिनकर प्रकाश की तरह और भी अधिक स्पष्ट है ।
प्रमेयकमलमार्तण्डके उपर्युक्त उसे प्रकट है कि वस्तुमें अभित्यपादानतिरूप पर्यायशक्तिकी उत्पति कार्यरूप होनेसे उस वस्तुको स्वाभाविक नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्तिके अनुसार प्रेरक निमित्तों का सहयोग प्राप्त होनेपर ही होती है । अत: उन्हें (प्रेरक निमित्तों को) अकिचित्कर कदापि नहीं माना जा सकता है । दूसरे, अनित्य उपादानशतिरूप पर्यायशक्तिकी वस्तु उत्पत्ति हो जानेपर भी यह नियम नहीं माना जा सकता है कि उसके अनन्तर उत्तरकालमें विवक्षित पर्यायकी ही उत्पत्ति होती है अन्य पर्यायको नहीं, क्योंकि आगमप्रमाणोंके आधारपर सिद्ध है कि वस्तुमें स्वाभाविक निरय उपादान शक्तिरूप द्रव्यशक्तिके अनुसार उसी पर्यायकी उत्पत्ति होती है, जिसके अनुकूल प्रेरक निमित्तोंका सहयोग उसे उस समय प्राप्त होता है । इस तरह उत्तरपक्ष की यह मान्यता गलत हो जाती है कि द्रव्यके स्वकालमें पहुंच जानेपर नियमसे विवक्षित पर्यायकी ही उत्पत्ति होती । प्रमेयक मलमार्तण्डके उक्त उद्धरणसे यह भी सिद्ध है कि निमित्त अक्रिचित्त्रर न होकर कार्यकारी हो होते हैं, आगमप्रमाण ( पंचास्तिकाय गाथा ८७ - १४) के आधारपर यह मी स्पष्ट है कि कार्योत्पत्ति में प्रेरक निमित्तोंके समान उदासीन निमित्त भी कार्यकारी होते हैं - वे अकिंचित्कर नहीं बने रहते हैं । इसके अतिरिक्त बाघक कारणोंका अभाव भी कार्योत्पत्ति के लिए आवश्यक होता है, जिसका समर्थन निम्न प्रकारसे होता है
द्वादश गुष्णस्थानके प्रथम समय में जो आत्मस्वभावकी पूर्ण निर्मलता प्रगट हो जाती है उसका निमित्त कारण दशम गुणस्थानके अन्त समय में मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय हो जाना ही है तथा त्रयोदश गुणस्थानके प्रथम समय में जो आत्मस्वभावका पूर्ण विकास होता है उसका निमित्त कारण द्वादश गुणस्थानके अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्वराय कमका क्षय हो जाना ही है। लेकिन इतना होनेपर भी जब जीव सिद्ध पर्याय प्राप्त नहीं होता तो जान पड़ता है कि वहाँ जीवकी सिद्ध पर्यायके प्रगट होनेमें बाधककारणभूत योग तथा चार अघातिया कर्मो का सद्भाव विद्यमान है। इसी तरह चतुर्दश गुणस्थानके प्रथम समय में उस जीवकी घोगरहित अवस्था 'जानेपर भी जो उसकी सिद्ध पर्याय प्रगट नहीं होती उसका भी बाधक कारण
पर चार अघातिया कर्मोका सद्भाव अवगत होता है । इस तरह जैब जीव चतुर्दश गुणस्थानमें बाधककारणभूत चारों अघातिया कर्मो का भी क्षय करके नोकमोंके साथ अपना सर्वथा राम्बन्ध विच्छेद कर लेता है। तभी उसको सिद्ध पर्यायकी प्राप्ति होती है
इससे निर्णीत होता है कि प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सद्भावके साथ बाधक कारणोंका अभाव भी कार्योपत्ति में साधक होता है। इस प्रकार कार्योत्पत्ति के लिए वस्तुको स्वाभाविक योग्यता के रूप में नित्य
२४