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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उनकी कायगुप्ति भंग हो गई । (महारानी चेलनाचरित्र पृ० ११२, सूरतसे प्रकाशित वीर सं० २४८६) ।
अब यह बात सिद्ध की जाती है कि मात्र शरीरको क्रियासे ऐसा धर्म होता है जो सर्व कर्मक्षयका व संसार विच्छेदका कारण है।
यह तो सुनिश्चित ह कि कंबलो जिनके मोह राग द्वेषका अभाव है, इसलिए उनके जो पुण्योदयसे चलने बैठने तथा उपदेश देने रूप शारीरिक क्रिया होती है यह बन्धका कारण नहीं होती, अपि तु कथंचित् क्षायिकी होनेसे मोक्ष का कारण होती है। प्रवचनसारमें श्री कुन्दकुन्द स्वामीने कहा भी है
पुण्णफला अरहता तेसि किरिया पुणो हि ओदया।
___ मोहादीहि विरहिमा तम्हा सा खाइय ति मदा ॥४५॥ अर्थ-पुण्यफलवाले अरहन्त हैं और उनको क्रिया भौयिकी है । अरहन्त भगवान् मोहादिसे रहित हैं, इसलिए उनकी क्रिया क्षायिकी मानी गई है ।
इसकी टीका भी अमृतचन्द्र मूरिने लिखा है
मोह-राग-द्वेषरूपाणामुपरञ्जकानामभावाच्चैतन्यविकारकारणतामनासादयन्ती नित्यमीदयिकी कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूततया कायंभूतस्य मोक्षास्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत !
अर्थ-मोह-राग-द्वेषरूपी उपरजकों (धिकारी मावों) का अभाव होनेरी अरहन्त भगवान्की बिहार आदि क्रिया चैतन्य विकारका कारण नहीं होती, इसलिए कार्यभूत बन्धकी अकारणभूततासे और कार्यभूत मोक्ष की कारणभूततासे क्षायिको ही क्यों नहीं माननी चाहिए, अर्थात् अवश्य माननी चाहिए ।
केवली भगवान्के वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मको स्थिति यदि आयुकर्मकी स्थितिसे अधिक होती है तो वेदनीय आदि तीन कमौकी अधिक स्थितिका नाश करनेके लिए उस सूप प्रयत्न या उपयोगके बिना ही केवलीसमुचात होता है, क्योंकि इन तीन कर्मोकी अधिक स्थितिका नाश हुए बिना संसारका विच्छेद नहीं हो सकता।
श्री पवलसिद्धान्त १०२५०३०२ में कहा भी हैसंसारविच्छित्तो कि कारणम् ? द्वादशांगावगमः तत्तीवभक्तिः केवलिसमुद्धातोऽनिवृत्ति
परिणामाश्च ।
अर्थ संसार पिछेदका क्या कारण है : द्वादशांगका ज्ञान, उनमें तीवभक्ति, केवलिसमुद्धात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार विच्छेदके कारण हैं ।
चार घातिया कर्मोका नाश हो जानेसे केथलि जिनका उपयोग स्थिर हो जाता है । किसी भी शारीरिक क्रियाके लिए उस रूप प्रयत्न या उपयोगकी आवश्यकता नहीं होती, विन्तु वे क्रियाएँ स्वाभाविक होती है, अतः केवलिसमुद्धातरूप क्रिया भी स्वाभाविक होती है जो संसार विच्छेदका कारण है । संसार विच्छेदका जो भी कारण है वह सब धर्म है ।
इस प्रकार उपयुक्त प्रमाणोंसे यह सिद्ध हो गया कि धर्म-अधर्ममें शरीरकी क्रिया सहकारी कारण तो है ही, किन्हीं अवस्थाओंमें मात्र शरीरको क्रिया संयमका छेद रूपी अधर्म तथा संसारविच्छेदका कारण रूप धर्म भी होता है।