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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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रहे हैं" इत्यादि । सो उसका आशय यह है कि कोटके निर्माणार्थ लाये गये उस कपड़े में उस समय कालक्रमसे प्रतिक्षण कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके अनुसार प्राकृतिक ढंग से प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके आधारपर होनेवाले परिणमनोंकी जो प्रक्रिया चली आ रही थी उन परिमनकी वह प्रक्रिया तो उस कपड़ेका कोट बन जानेपर भी चालू रही। परन्तु कपड़ेका जो प्रतिक्षण अन्यअन्य रूपताको प्राप्त कोट रूप परिणमन हुआ वह चूँकि प्रायोगिक ढंगसे प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप दर्जीके व्यापार आदि प्रेरक और उदासीने निमित्त बाह्य सामग्री वा कर उसको प्राकृतिक ढंगसे प्राप्त प्रेरक और उदासीन निमित्तभूत बाह्य सामग्री के आधारपर कालक्रमसे प्रतिक्षण होनेवाले उन परिणमनोंकी प्रक्रियाका अंग नहीं माना जा सकता है। इसलिए पूर्वपक्षका ० ० पू० २४ पर निर्दिष्ट "यहाँ पर हम उस कपड़ेकी एक-एक क्षण में होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर रहे हैं" इत्यादि कथन असंगत नहीं है ।
तात्पर्य यह है कि कपड़े की जो प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त कपड़ा रूप व्यंजन पर्याय बनी वह भी प्रायोगिक ढंग से प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप प्रेरक और उदासीन निमित्तभूत बाह्य सामग्री के आधारपर बनी। इसके पूर्व उसकी जो प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त सूत रूप व्यंजन पर्याय बनी थी वह भी प्रायोगिक ढंगसे प्राप्त प्रतिक्षण अभ्य अन्य रूप प्रेरक और उदासीन निमित्तभूत बाह्य सामग्रीके आधारपर ही बनी थी और पश्चात् जो प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त कोट रूप व्यंजन पर्याय बनी वह भी प्रायोगिक ढंग से प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप प्रेरक और उदासीन निमित्त भूत बाह्य सामग्री के आधारपर ही बनी । लेकिन प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त इन सूत, कपड़ा और कोट रूप व्यंजन पर्यायोंके सद्भाव में भी प्राकृतिक ढंग से प्राप्त प्रतिक्षण अन्य अन्य रूप प्रेरक और उदासीन निमितभूत बाह्य सामग्री के आधारपर प्रतिक्षण अन्य अन्य रूपताको प्राप्त जो पर्यायें सतत निराबाध हो रही हैं वे सभी पर्यायें अन्य हैं और जिन सूत, कपड़ा और कोट रूप व्यंजन पर्यायोंमें ये पर्यायें सतत हो रही हैं वे सूत, कपड़ा और कोट रूप व्यंजन पर्यायोंसे अभ्य हैं अर्थात् दोनों तरहकी पर्यायोंको प्रक्रिया पृथक्-पृथक् रूप में एक साथ चल रही है । दोनों तरह की पर्यायें एक प्रक्रियाकी अंग नहीं हैं। मुझे आशा है कि इस विस्तृत विवेचनसे उत्तरपक्ष प्रकृत विषय में वास्तविक स्थिति को समझने की चेष्टा करेगा और पूर्वपक्ष के त० च० पृ० २४ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त कनके विषय में उसे जो मिथ्या भ्रम है उसे दूर कर लेगा, क्योंकि यह बात निर्विवाद है कि प्रत्येक वस्तुमें अण-क्षण में होनेवाले परिणमनोंकी एक प्रक्रिया प्राकृतिक ढंगसे प्राप्त निमित्तभूत बाह्य सामग्री के सहयोग से सतत निराबाध चल रही है। इसके अतिरिक्त वस्तुमें क्षण-क्षण में होनेवाले परिणमनोंकी दूसरी प्रक्रिया भी प्रायोगिक ढंग से प्राप्त निमित्तभूत बाह्य सामग्री सहयोग से यथावसर चलती है। वस्सुके परिणमनों की बोनों प्रक्रियायें पृथक-पृथक हैं। इनमें से पहली प्रक्रियाको सूक्ष्म व्यंजनपरिणमनों (पर्यायों) की प्रक्रिया कहना चाहिए और दूसरीको स्थूल व्यंजनपरिणमनों (पर्यायों) की प्रक्रिया कहना चाहिए। पूर्वपक्षको दृष्टिमें परिणमनोंकी ये दोनों प्रक्रियाएँ थीं, जिनके आधारपर ही उसने त० ० पृ० २४ पर उपर्युक्त कथन किया है।
कथन ५६ और उसकी समीक्षा
(५६) उत्तरपक्ष ने अपने इसी वक्तव्य में लिखा है कि "अपरपक्षने बाह्य सामग्रीको कारण मानकुछ भी कथन किया है वह व्यवहारनयका हो वक्तव्य हूँ ।" इसमें हमें विवाद नहीं है, परन्तु इतना
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