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जयपुर (सानिया) सत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अवश्य है कि ब्यवहारनयका विषय होनेपर भी वह पूर्वपक्षकी दृष्टिके अनुसार अपने रूपमें वास्तविक ही है, उत्तरपक्ष की दृष्टि के अनुसार कल्पनारोपित मात्र नहीं है । यह बात पहले स्पष्ट की जा चुकी है। कथन ५७ और उसकी समीक्षा
(५७) उत्तरपक्षने अपने इसी वक्तव्यमें यह लिखा है कि "निश्चयनयकी अपेक्षा विचार करनेपर अनन्त पुदगलोंके परिणामस्वरूप फपड़ेकी जिस कालमें अपने उपादानके अनुसार संघात या भेदरूप जिस पर्यायके होने का नियम है जरा कालमें वही पर्याय होती है, क्योंकि प्रत्येक कार्य उपादान कारणके सदृश होता है ऐसा नियम है।" सो यह उसने निमित्तको अकिंचित्कर सिद्ध करनेके लिए ही लिखा है जो आगम-विरुद्ध है । भागम तो यह है कि निश्चयनयकी अपेक्षा विचार करनेपर अनन्त पुद्गलोंके परिणामस्वरूप कपड़ेकी अपने उपादानके अनुसार संघात या भेदरूप जिस पर्यामके होनेका नियम है वही पर्याय होती है परन्तु वह तभी होती है जब उसे अनुकूल बाह्य निमित्तसामग्रीका सहयोग प्राप्त होता है। इस तरह इससे उपादानकी तरह कार्योत्पत्तिमें निमित्त की भी कार्यकारिता सिद्ध होती है। आचार्य जयसेन द्वारा समयसार गाथा ३७२ की टीकामें निर्दिष्ट "उपादानसदृशं कार्य भवति" इस कयनका समन्वय पूर्वपक्षके कथनके साथ ही उचित ढंगसे होता है उत्तरपक्षके कथनके साथ नहीं, क्योंकि उत्तरपक्षका कथन व्यवहारनम निरपेक्ष होनेसे मिथ्या ही सिद्ध होता है । जबकि पूर्वपक्षका निश्चवनयकथन व्यवहारनय सापेक्ष होनेसे सम्यक है । तात्पर्य यह है कि निश्चयनय वही सम्यक है जो व्यवहारनयसापेक्ष होता है। यतः कार्योत्पत्तिमें उत्तरपक्ष केवल निश्वयनयके विषयभूत उपादानको ही कार्यकारी मानता है, व्यवहारनयके विषयभूल मिमित्तको वहां वह पूर्वोक्त प्रकार अकिंचित्कर ही मानता है। अतः उसका कथन व्यवहारनयनिरपेक्ष होनेसे सम्यक नहीं है। कथन ५८ और उसको समीक्षा
(५८) उत्तरपक्षने त. च० पू० ६५ पर ही आगे लिखा है कि "दर्जी जब उसकी इच्छामें आता है तब कपड़ेका कोट बनाता है यह पराश्रित भाव है और कपड़ा उपादानके अनुसार स्वकालमै कोट बनता है यह स्वाश्रित भाव है । अनुभव दोनों हैं । प्रथम अनुभव पराधीनताका सूचक है और दूसरा अनुभव स्वाधीनताका सूचक है । यह अपराक्ष निर्णय करे कि इनमें से किसे यथार्थके आश्रय माना जाये।"
इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि पूर्वपक्षको उसरपक्षके इस कथनमें केवल इस बातका विरोध है कि उत्तरपक्ष स्वकालका यह अर्थ स्वीकार करता है कि जिस कालमें कपड़ेका कोट बननेका नियम है उस कालमें कपड़ा कोट बनता है । इसके विपरीत पूर्वपक्ष उसका यह यह अर्थ स्वीकार करता है कि जिस कालमें कपड़ेको कोट निर्माणके अनुकूल बाह्य सामग्रीका योग मिलता है उस कालमें कपड़ा कोट बनता है 1 तथा स्वाश्रित अनुभव ही यथार्थ के आश्रयसे है यह उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्षको भी मान्य है । परन्तु उपर्युक्त प्रकारके पराथित अनुभवको उत्तरपक्ष भले ही कीमत न करे, क्योंकि वह कपड़ाका कोट बनने में दर्जीकी इच्छा आदि बाह्य सामग्रीको अकिचिकर मानता है। परन्तु पूर्वपक्ष-स्वाश्रित अनुभवके साथ-साथ पराश्रित अनभवकी भी कीमत करता है, क्योंकि वह कपड़ेका कोट बनने में दीकी इच्छा आदि बाह्य सामग्रीको भी कार्यकारी मानता है। कथन ५९ और उसकी समीक्षा
(५९) आगे उत्तरपक्षने त २० पृ० ६५-६६ पर यह कथन किया है कि-"अपरपक्ष इष्टोपदेशके "नाजो विज्ञत्वमायाति" इत्यादि श्लोकको द्रव्यकर्मके विषय में स्वीकार नहीं करता, क्यों स्वीकार नहीं