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जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा कथन १० और उसकी समीक्षा
(१०) आगे तक च. प. ३५पर ही उत्तरपनने लिखा है-"आमममें दोनों प्रकारका कथन उपलब्ध होता है । कहीं उपादानको मुख्यता कथन किया गया है और कहीं निमित्तव्यवहारके योग्य बाए सामग्रीकी मुख्यतासे कथन किया गया है। जहाँ उपादानकी मुख्यतासे कथन किया गया है वहीं उसे निश्चय यथार्थ कथन जानना चाहिए और जहाँ निमित्त व्यबहार योग्य बाह्य सामग्रीकी मुख्यतासे कथन किया गया है वहाँ उसे अराद्भूत व्यवहार (उपचरित) कथन जानना चाहिए।"
उत्तरपक्षके इस कथन में जहाँ तक आगमका रामर्थन है वहाँ तक पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है अर्थात् पूर्वपक्ष आगममें विद्यमान निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकारके कथनोंको स्वीकार करता है । कहाँ कब किस दृष्टि से आगममें कथन किया गया है उसे भी वह मान्य करता है और उपादानकी मुख्यतासे किये गये कथनको निश्चय या निमिनको य:से निगमलको अमाभूत व्यवहार (उपचरित) वह भी मानता है। दोनों पक्षोंके मध्य जो विवाद है वह इन बातों में है कि जहां उत्तरपक्ष निमित्तको सर्वथा अकिंचित्कर मानता है और इसी अकिंचित्करताके आधारपर उसे वह अपथार्थ कारण व उपचरितकर्ता मानकर इसी रूपमें असदभूत व्यवहार (उपचरित) स्वीकार करता है वहाँ पूर्यपक्ष निमित्तको कार्य में सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है और इसी कार्यकारिताके आधारपर वह उसे अयथार्थकारण व उपरितकर्ता स्वीकार कर इसी रूपमें असद्भूत व्यवहार (उपचरित) मानता है । कथन ११ और उसकी समीक्षा
(११) उत्तरपक्षने त प. पृ० ३५ पर ही आगे यह कथन किया है-'श्री समयसार गाथा ३२ की टीका निमित्तम्यवहारके योग्य मोहोदयको भावक और आत्माको भाव्य कहा गया है सो उसका आशम इतना ही है कि जब तक यह जीव मोहोदय के सम्पर्कमें एकत्वबुद्धि करता रहता है तभी तक मोहोदयमें भावक व्यवहार होता है और आत्मा भाष्य कहा जाता है। यदि ऐसा न माना जाये तो सतत मोहोदयके विद्यमान रहने के कारण यह आत्मा भेदविज्ञानके बलसे कभी भी भाव्य-भावक संकरदोषका परिहार नहीं कर सकता । इस प्रकार उक्त कथन द्वारा आत्माको स्वतंत्रताको अक्षण्ण बनाये रखा गया है। आत्मा स्वयं स्वतंत्रपने मोहोदयसे अनुरंजित हो तो ही मोहोदय रंजक है अन्यथा नहीं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।"
उत्तरपक्षने अपने इस कथनमें जीवको अपनी विभाव परिणतिके करनेमें स्वतंत्र रूपसे कारण सिब करनेके लिये मोहोदयको उसमें सहायक न होने रूपसे अकिंचित्क र मान्य करना चाहा है और इसके लिये उसने समयसार गाथा ३२ की टीकाका विपरीत आशय प्रस्तुत करनेकी चेष्टा की है।
__ समयसार गाथा ३२ का सुसंगत आशय यह है कि जब तक जीवमें सम्बद्ध मोहकर्मका उदय विद्यमान है तब तक वह जीव अपनी विभावपरिणति करता रहता है और इस आधारपर ही मोहकर्मका उदय भावक . कहलाता है व आरमा भाव्य कहलाता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जब तक जोवमें मिथ्यात्व कर्मका उदय विद्यमान रहता है तब तक वह जीव अपनी मिथ्यात्वरूपं परिणति करता रहता है और उस मिथ्यास्वरूप परिणतिके कारण वह भावमिथ्यादष्टि बना रहता है। लेकिन यदि उस जीवमें मिथ्यात्व कर्मक उदयका उस कर्मक उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके रूपमें अभाव हो जाता है तो वह जीव भावसम्यग्दृष्टि हो जाता है। इस तरह जीवकी मिथ्यात्वरूप परिणति मिथ्यात्वकर्मके उदयकी सहायतासे उत्पन्न होनेके कारण उस मिथ्यात्वकर्मको भावक कहा जाता है और आत्माको भाव्य कहा जाता है। पूर्वपक्षने भी अपने