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जयपुर (खानिया) तश्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यहाँ विविध द्रव्यों में एक-दूसरे के फर्जी आणि धर्मीको व्यवहारनयसे स्वीकार किया गया है सो यह कथन तभी बन सकता है जब एकके धर्मको दूसरे में आरोपित किया जाए। इसोको असद्भूत व्यवहार कहते हैं । इस तथ्य को विशदरूपसे समझने के लिए आलापद्धतिके 'अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणभूतव्यवहाराका अन्यत्र समारोप करना अद्भूत व्यवहार है' इत्यादि चचमपर दृष्टिपात कीजिए ।
अपर पलने आप्तपरीक्षा कारिका २ से 'सदकारणयन्नित्यम्' वचनको क्यों उद्धृत किया, इसका विशेष प्रयोजन हम नहीं समझ सके। क्या ऐसा एकान्त नियम है कि जो-जो जीवका स्वभाव होता है वह सर्वथा नित्य होता है। अपर पक्ष इस बातको भूल जाता है कि जैन दर्शनके अनुसार आप्तपरीक्षा का उक्स बचन ध्यार्थिकनका ही वक्तब्य हो सकता है, पर्यायार्थिकनयका वक्तव्य नहीं, क्योंकि जैन दर्शन में कोई मी वस्तु सर्वथा नित्य नहीं स्वीकार की गई है। और स्वभाव पर्याय सर्वथा कारण के अभाव में होती हो मह - भी नहीं है । वहाँ भी प्रत्येक कार्यके प्रति बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रताको जनदर्शन स्वीकार करता है । जहाँ भी आगम में स्वभाव कार्यको परनिरपेक्ष बतलाया है वहाँ उसका आशय इतना ही है कि जिस प्रकार कोवादि भाव कर्मोक्ष्य आदिको निमित्तकर होते हैं उस प्रकार स्वभाव कार्य कर्मोदय आदिको निमित्तकर नहीं होते । स्पष्ट हैं कि आप्तपरीक्षाका उक्त वचन प्रकृत में उपयोगी नहीं है ।
अपर पक्षने जयमाला १-५६ के बचनको उद्धृतकर जो यह प्रसिद्ध किया है कि प्रत्येक कार्य बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामें होता है सो इसका हमने कहीं निषेध किया है। रागादि भावकी उत्पत्ति में कर्मकी निमित्तताको जैसे अपर पक्ष स्वीकार करता है उसी प्रकार हम भी स्वीकार करते हैं। विवाद इसमें नहीं है । किन्तु विवाद इसमें है कि परद्रव्यको विवक्षित पर्यायको निमिसकर दूसरे द्रध्यमें जो कार्य होता है उसका यथार्थ कर्त्ता कौन है ? अपर पक्षने परमात्मप्रकाश गाथा ६६ और ७८ को उपस्थित कर यह सि करनेका प्रयत्न किया है कि जीवको सुख-दुःख र नरक - निगोद आदि दुर्गति देनेवाला कर्म ही है। आत्मा तो पंगु समान है। यह न कहीं जाता है और न आता है। तीन लोक में इस ओको कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है। शायद अपर पक्ष निमित्त कर्ताका यही अर्थ करता है और इसीको वह अपने प्रतका समुचित उत्तर मानता है। किन्तु वह व्यवहारका वक्तव्य है इसे अपर पक्ष भूल जाता है । परका सम्पर्क करने से जीवको कैसी गति होती है वह इन वचनों द्वारा प्रसिद्ध किया गया है। यहाँ यह स्मरण रखने योग्य बात है कि परका सम्पर्क करना और न करना इसमें जोवकी स्वतन्त्रता है । इसमें उसकी स्वतन्त्रता हैं कि जैसे कोई पुरुष या स्त्री अपने ऊपर किरासन तेल डालकर और अग्नि लगाकर जल मरे । जो ऐसा करता है वह नियमसे मरकर दुर्गतिका पात्र होता है और जो ऐसा नहीं करता वह मरकर दुर्गतिका पात्र नहीं होता। ऐसा ही इनमें निमित्तनैमित्तिक योग है । इसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। परमात्मप्रकाशके कर्ता इस संसारी जीवको परके सम्पर्क करनेका क्या फल है यह दिखलाकर उससे विरत करना चाहते हैं। यह तो है कि यह जीव परका सम्पर्क करके नरक- निगोदका पात्र होता है और अपना पुरुषार्थ भूलकर पंगुके समान बना रहता हूँ । पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह जीव परका सम्पर्क तो करे नहीं, फिर भी पर द्रश्य इसे सुखी - दुखी या नरक - निगोद आदिका पात्र बना देवे । परका सम्पर्क करने से जीवका सुखी दुखी होना और बात है और परसे यह जीव सुखी-दुखी होता है, ऐसा मानना और बात है। परमात्मप्रकाश के कर्ताने इनमें से प्रथम वचनको ध्यान में रखकर ही 'अप्पा पंगुह' तथा 'कम्मइँ दिदधणचिक्कणई' इत्यादि वचन
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