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शंका ४ और उसका समाधान
१४९ सम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यक्चारित्रके विषयमें खुलासा कर लेना चाहिए । अध्यात्ममें व्यवहारका लक्षण हो यह है कि जो जिस रूप न हो उसको उस रूप कहना व्यवहार कहलाता है । व्यवहारका यह लक्षण सद्भूत और असद्भुत दोनों प्रकारके व्यवहारोंमें घटित होता है । यदि इनमें अन्तर है तो इतना ही कि सद्भूत रूप वस्तु है तो, परन्तु सर्वथा पृथक नहीं है । पर असदभुत व्यवहारफी विषयभूत वस्तु मात्र उपचरित होती है उदाहरणार्थ हम पहले बृहद्रव्यसंग्रहका प्रमाण उपस्थित कर आये हैं । उसमें व्यवहार चारित्रको चारित्र उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे बतलाया गया है। उसका आशय ही यह है कि व्यवहार चारित्र वास्तवमें चारित्र नहीं है किन्तु निश्चय चारित्रका सहचर होनेसे प्रतादिरूप प्रशस्त रागको उपचारसे चारित्र कहा गया है।
अपर पक्ष ने बृहद्रव्यसंग्रह माथा ४७ के "दुविहं पि मोक्खहेड' इस वचनपर, तो दृष्टिपात किया ही होगा । उसने आगममें यह भी पढ़ा होगा वि व्यवहार मोक्षमार्ग मोक्षका परम्परा हेतु है और निश्चय मोक्षमार्ग साक्षात् हेतु है । वह यह लिख हो रहा है कि व्यवहार मोक्षमार्ग साधक है और निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है । ऐसी अवस्थामें वह पक्ष दोको एक ही क्यों बतलाने लगा है यह हमारी समहाके बाहर है। जो निश्चयमोक्षमार्ग हैं वही यदि व्यवहार मोक्षमार्ग है तो फिर वे दोनों एक हए। इनमें साधकसाध्यभावको चरचा करना ही व्यर्थ है। और यदि वह इन्हें वास्तव में दो मानता है तो इन दोनोंके पृथक-पथक लक्षण भी स्वीकार करने चाहिए। साथ ही उन दोनोंको इस रूपमें मानना चाहिए कि एक आत्मामें उन दोनोंका सद्भाव एक साथ बन जाय । तभी तो उनमें से एकको साधन (निमित्त) और दूसरेको साध्य कहा जा सकेमा । मिट्री घटरूप परिणम रही हो, फिर भी उसका बाह्य साधन कुम्भकाराविही ऐसा माना विचित्र बात है। तात्पर्य यह है कि निश्चय रत्नत्रयके साथ उससे मिन्न दूसरी कोई वस्तु अवश्य होनी चाहिए जिसमें साधन व्यवहार किया जा सके और बे दोनों परस्पर अविनाभावी होने चाहिए। स्पष्ट है कि यहाँपर श्रद्धा विषयभूत देवादिको प्रशस्त रागको व्यवहार सम्यग्दर्शन बहा गया है, ज्ञानोपयोगके विषयभूत आगमाभ्यासमें प्रशस्त रागको व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहा गया है और चर्याके विषयभूत ब्रतातिके नियमरूप प्रशस्त रागको व्यवहार सम्पकचारित्र कहा गया है । तथा आत्माके श्रद्धा, ज्ञान और चारित्रकी शद्धिरूप परिणतिको निश्चय सम्यग्दर्शन निश्चयसम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यकूचारित्र कहा गया है।
अपरपक्षने तीसरे प्रश्नके अपने तीसरे पत्रकमें तत्वार्थसूत्र १० ७ सू० १ के आधारसे एक बात यह भी लिखी है कि 'व्रत विरक्ति अर्थात् निवृत्तिरूप हैं, प्रवृत्तिरूप नहीं हैं।' मालूम पड़ता है कि इसी कारण अपरपक्षको व्यवहार रलायको देवादि विषयक प्रशस्त रागरूप माननेमें बाधा पड़ रही है। परन्तु उस पक्षका यह विधान मोक्षमार्गपर गहरा प्रहार करनेवाला है इसे बह पक्ष नहीं समझ रहा है । यह जोब मोक्षमार्गी कैसे बनता है उसका क्रम यह है कि 'सर्वप्रथम यह जीव तत्त्वज्ञानपूर्वक कुदेवादिका त्यागकर सच्चे देवादिमें रुचि करता है, कुशास्त्रोंको छोड़कर सम्यक् शास्त्रोंका अध्ययन करता है, गुरुका उपदेश सुनता है और मिथ्यात्वको पोषक क्रियाओंको छोड़कर देवपुजा आदि क्रिया करता है । इस प्रकार अशुभसे निवृत्त होकर शुभमें प्रवृत्त होता है।' किन्तु इतना करनेमात्रसे उसे सम्यक्त्व प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि ये मोक्ष प्राप्तिके साक्षात् साधन नहीं हैं । मोक्षमार्गकी प्राप्तिके कालमें निमित्तमात्र हैं । इतनी भूमिका तो भिध्यादृष्टिको ही बन जाती है फिर भी सम्यक्त्व नहीं होता है । कारण