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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा यहाँ टीकामें धर्मका अर्थ व्यवहार धर्म किया है और लिखा है कि प्रशस्त (अरिहन्तादि) इसके विषय है, इसलिए यह प्रशस्त राग है । प्रशस्त राग क्या है इसका निर्देश करते हुए मलाचार (वडावश्यक अधिकार) में लिखा है
अरहतेसु य राओ ववगदरागेसु दोसरहिएसु। धम्मम्हि य जो राओ सुधे यजो बारसविधम्हि ॥७३॥ आइरिएस य राओ समणेस य बहसदे चरितडढे।।
एसो पसत्थराओ वदि सरागेसु सब्वेसु ॥७४।। रागढ षसे रहिस अरिहंतोंमें जो राग है, धर्ममें और बारह प्रकारके श्रुतमे जो राग है, सथा चारित्रसे विभूषित आचायों, श्रमणों और उपाध्यायोंमें जो राग है वह प्रशस्त राग है। यह सब सराग जीवोंके होता है ।।७३-७४॥
यहाँ तक हमने जो प्रमाण उपस्थित किये हैं उनको ध्यानमें रखकर यदि विचारकर देखा जाय तो निश्चय सम्यक्त्वके साथ होनेवाला यह प्रशस्त राग ही व्यवहार सम्बदर्शन और व्यवहार सम्यग्ज्ञान है 1 तथा अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्ति रूप जो प्रशस्त राग है यही व्यवहार सम्यक्चारित्र है । यह व्यवहार सम्यक्चारिक भी नियमसे निश्चय सम्यक्चारित्रका अविनाभावी है । मूलाचार मूलगुणाधिकार गाया ३ की टीकामें प्रसका लक्षण करते हुए लिखा है
यतशब्दोऽपि सावधनिवृत्ती मोक्षावाप्तिनिमित्ताचरणे वर्तते । व्रत शब्द भी सापद्यकी निवृत्ति होनेपर मोक्ष प्राप्तिके निमित्तभूत आचरणमें व्यवहृत होता है।
ये जितने भी व्रत हैं ये अशुभसे नियुत्तिरूप और शुभमें प्रवृतिरूप ही हैं । इसीसे द्रव्यसंग्रहमें अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको चारित्र बतलाया है । व्रतोंका आसव तत्त्वमें अन्तर्भाव करनेका कारण भी यही है । इनके लक्ष्यसे शुभोपयोग होता है, शुद्धोपयोग नहीं होता, इसका भी यही कारण है । शुभोपयोग संघर और निर्जराका कारण न होकर मात्र आसन बन्धका हेत है इसका विशेष खुलासा हम तीसरे प्रश्न के तीसरे उत्तरमें विशेष रूपसे कर आम है।
नियमसारमें जो आप्त, आगम और पदार्थोके श्रद्धानको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है उसका आशय ही इतना है कि इनके यथार्य स्वरूपको जानकर इनमें प्रगाढ़ रुचि अर्थात् प्रगाढ भक्ति रखनी चाहिए और भक्ति प्रशस्त रागका उद्रेक विशेष है । अरिहन्तादिकमें ऐसा प्रशस्त राग सम्यग्दृष्टिके ही होता है, इसलिए इसे निश्चय सम्यक्त्वसे भिन्न घ्यवहार सम्यक्त्व कहा है। मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम होनेपर जो श्रद्धागुणकी मिथ्यात्व पर्यायका व्यय होकर सम्यक्त्वरूप परिणाम होता है, जो कि आत्माकी विशुद्धिरूप है वह निश्चय सम्यक्त्व है। और उसके होनेपर जो सच्चे देवादिमें विशेष अनुराग होता है यह व्यवहार सम्यक्त्व है । इस प्रकार इन दोनोंमें महान् अन्तर है।
सम्भवतः अपर पक्ष का यह ख्याल बना हुआ है कि रामविशेषकै कारण निश्चय सम्यक्त्वको ही व्यवहार सम्यक्त्व कहते है, किन्तु यह बात नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि निश्तव मभ्यवरवके साथ जो सच्चे देवादि परद्रव्य विषयक प्रशस्त राग होता है उसे ही व्यवहार राम्यक्त्व कहत है । इसी प्रकार व्यवहार