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शका ४ और उसका समाधान अपर पक्षने इसी वाक्यको अपने तीसरे पत्रकमें उद्धृत किया है । फिन्तु उसे उद्धृत्त करते हुए एक तो 'वहाँ उसके साथ होने वाले' प्रारम्भके इस वचनको छोड़ दिया है । दूसरे, बोचका कुछ अंश छोड़कर दो कथनके रूपमें उसे उद्धृत किया है । तीसरे हमारे वाक्यमें आये हुए 'वह' पदके आगे कौंसमें (रागपरिणाम) गह पद अपनी ओर से जोड़ दिया है। और इस प्रकार उस वाश्यके आशयको नष्टकर अपनी टीका प्रारम्भ कर दी है।
अपर पक्षका कहना है कि मात्र रागपरिणामको किसी भी आगम ग्रन्थमें व्यवहार मोक्षमार्ग नहीं कहा है। किन्तु अपर पक्षका यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि मात्र रागपरिणामको हमने भी मोक्षमार्ग नहीं लिखा है और ऐसा है भी नहीं कि जो जो रागपरिणाम होता है यह सब मोक्षमार्ग हो होता है। किन्तु ऐसा अवश्य है कि निश्चय मोक्षमार्म के साथ सच्चे देवादिकी श्रद्धा, सञ्ने शास्त्रक अभ्यास तथा अणुवतमहावत आदिके PM जो शुभ परिणति देती है तो पदमारणमें भावहार मोक्षमार्ग कहा है। इससे हमारा यह कथन सिद्ध हो जाता है कि निश्चय मोक्षमार्गके साथ होनेवाला व्यवहार धर्मरूप रागपरिणाम व्यवहार मोक्षमार्ग है । हमारे उक्त कथनकी पुष्टिमें बृहदम्यसंग्रह गाथा ३९ को टीकाके इस वचन पर दृष्टिपात कीजिए
वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थसम्यनद्धान-शानव्रताउनुष्ठानविकल्परूपी व्यवहारमोक्षमार्गः । निजनिरजनशुद्धात्मतत्त्वसम्यक श्रद्धानज्ञानानुचरणकाग्यपरिणतिरूपो निश्चयमोक्षमार्गः ।।
श्रीवीतराम मर्वज्ञदेव कथित छह दश्य, पांच अस्तिकाम, सात तरच और नौ पदार्थोके सम्यक् धद्धान, ज्ञान और व्रत आदिला आचरणके विकल्परूप व्यवहार मोक्षमार्ग है तथा निज निरंजन शुद्ध आत्मतत्वक सम्यक् श्रज्ञान, ज्ञान और अनुचरणकी एकाग्र परिणतिरूप निश्चय मोक्षमार्ग है।
सराग चारित्रका लक्षण करते हुए इसी पन्धकी ४५वीं गाथा अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको व्यवहार चारित्र कहा है और उसे वत, समिति तथा गप्तिरूप बतलाया है। तथा इसकी व्याख्या देशचारित्रको इसका एक अवयवरूप बतलाया है।
आगे इसी गाथाकी व्याख्यामें यह भी लिखा है
तच्चाचाराराधनादिचरणशास्त्रोक्तप्रकारेण पंचमहाव्रतपंचसमिति-निगुप्तिरूपमप्यपहृतसंयमाख्यं शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति ।
और वह आचार-आराधना आदि परणानुयोगके शास्त्रों में कहे अनुसार पांच महावत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप होता हुआ भी अपहृत संयम नामक शुभोपयोग लक्षणवाला सराग संयम नामवाला होता है। पंचास्तिकायमें लिखा है---
अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा।
अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति बुच्चंति ॥१३६|| अरिहन्त, सिद्ध और साधुओं के प्रति भक्ति, धर्म में नियमसे चेष्टा और गुरुओंका अनुगमन यह प्रशस्त राग कहलाता है ॥१३६॥