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शंका-समाधान १ की समीक्षा
योग्यताके अनुरूप ही हो रही है उसकी उस क्रिया में ही उसका ही पुरूषार्थ हो रहा है और यह उसके ही लाभके लिए हो रही है। इतना ही नहीं वह शिष्यमें पिछली क्रियाका अपादान होकर हो रही है और वह उसके द्वारा ही की जा रही है। परन्तु उसके होने में अध्यापकके प्रेरणात्मक व्यापारको उपेक्षित नहीं किया जा सकता है, इसलिये "शिष्य पढ़ता है" इस प्रयोगके साथ वहां "अध्यापक पढ़ाता है" इस प्रयोगकी भी उपयोगिता बुद्धिगम्य हो जाती हैं। इसके साथ उसमें अवलम्बन रूपसे "दीपकके प्रकाशमें शिष्य पढ़ता है" इस अभिप्रायको प्रगट करनेवाले "दीपक पड़ाता है" इस प्रयोगकी उपयोगिता भी बृद्धिगम्य हो जाती है। इस प्रकार परस्पर सम्बद्ध इन तीनों प्रयोगों से प्रथम प्रयोग निश्चयनयका है, क्योंकि वह प्रयोग पठनक्रियामें तद्रूप परिणत होनेके आधार पर शिष्यकी उपादानबारणताको बतलाता है । दूसरा प्रयोग असद्भुत कपबहारनबका है, क्योंकि वह प्रयोग शिष्यको पठनक्रिवाके होने में प्रेरक रूपसे अध्यापककी सहायक होने रूप निमित्तकारणताको प्रकट करता है और तीसरा प्रयोग भी अराद्भत व्यवहारनयका है, क्योंकि वह प्रयोग शिष्यको पठनक्रियाक होने में अवलम्बन रूपसे दीपककी सहायक होने रूप निमित्तकारणताको ज्ञात कराता है ।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि एक ब्रब्यकी क्रिया नहीं कर सकता है और करता है जिसमें उस क्रियाकी सरूप परिणत होने की योग्यताके रूपमें उपादानकारणता विद्यमान रहती है। दूसरा द्रव्य उस एक द्रव्यको उस क्रियाको न तो कदागि कर सकता है और न करता ही है, क्योंकि उस दूसरे दृश्यमें उस एक द्रव्यकी उस रूप परिणत होनेकी योग्यताके रूपमें उपादानकारणता नहीं पाई जाती है। वह दूसरा व्य सर्वदा अपनी ही क्रिया कर राकता है और करता है, क्योंकि उसमें भ. उसामा कमी क्रिया कारकी उपादानकारणता पाई जाती है। वह अवश्य है वह दूसरा द्रव्य अपनी क्रिया करते हुए उस एक द्रव्यकी क्रियाके होने में सहयोगी बन जाता है, क्योंकि उस एक द्रव्यकी वह क्रिया उस दूसरे द्रव्यको क्रियाके होमेके अवसर पर हो होती है और न होनेके अवसर पर नहीं होती है। इसकी पुष्टिमें दूसरा उदाहरण पूर्वमें रेलगाड़ी के डिब्बेका, इंजिनका और रेलपटरीका भी दिया जा चुका है। अर्थात रेलगाड़ी के डिब्बे में होनेवाली क्रिया उसकी अपनी ही क्रिया है, ऋयोंकि उमकी वह क्रिया उसमें विद्यमान तदनुकूल योग्यताके अनुसार ही हुआ करती है, परन्तु इंजिनकी क्रियाका और रेलपटरीका यथारूप सहयोग प्राप्त होने पर ही उसकी वह क्रिया हुआ करती है । उनके यथारूप सहयोगके बिना उसकी वह क्रिया कदापि नहीं होती है।
इमसे यह निर्णीत होता है कि प्रत्येक द्रव्य उसमें विद्यमान तदनुकूल योग्यताके अनुसार ही अपनी स्वपप्रत्यय क्रिया क्रिया करता है। मात्र इतना ही निश्चयनयका विषय है। परन्तु उसकी वह क्रिया प्रेरक और सदासीन (अप्रेरक) निमित्तभूत अन्य द्रव्योंके यथानुरूप सहयोगसे ही होती है। उन अन्य द्रव्योंका यथानुरूप सहयोग प्राप्त हुए बिना उसकी वह क्रिया कदापि नहीं होती, इसलिये सहयोगके रूपमें ही उन अन्य द्रव्योंको वहाँ असद्भूत व्यवहारनयका विषय माना गया है ।
इससे स्पष्ट विदित होता है, कि निश्चयनय और व्यवहारनय दोनोंका विषय परस्पर सापेक्ष ही होता है और इस सापेक्षताके आधार पर हो उन्हें सम्यक् नय कहा जाता है। अन्यथा (निरपेक्ष होने पर) वे मिथ्या कहे जायेंगे।
यतः उत्तरपक्ष प्रत्येक व्यकी स्वपप्रत्यय क्रियाको स्वप्रत्यय क्रियाकी तरह प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग प्राप्त हुए बिना ही स्वीकार करता है, अतः उसकी इस स्वीकृतिमें निश्चयनयका विषय