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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा उसे वहाँ उत्तरपक्षकी तरह 'सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर निमित्तकारण' नहीं मानता । अपितु सहायक होने रूपसे 'कार्यकारी निमित्तकारण' ही मानता है जो भागमसम्मत है।
(४) उत्तरपक्षने इस चतुर्थ अनुच्छेदमें प्रश्न १६ के प्रथम उत्तरका स्पष्टीकरण करते हुए जीवके राग, वृष और मोह रूप भावोंको उसके स्वयंकृत भाव कहा है सो इस विषयमें पूर्वपक्षको भी इस रूपमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि जीव ही उन रूप परिणत होता है। लेकिन यदि उत्तरपक्ष स्वयंकृत शब्दका अर्थ ऐसा माने कि वे रागादि भाव कर्मोदयकी सहायताके बिना अपने आप ही जीवमें उत्पन्न हो जाया करते है, तो उसकी यह मान्यता आगमसम्मत न होनेसे वह पूर्वपक्षको अस्वीकृत है ।
प्रवचनसार गाथा ९ का भी इतना ही अभिप्राय है कि जीवमें जो अशुभ, शुभ या शुद्ध भाव होते हैं वे यथायोग्य कर्मके उदय उपशम, क्षयोपशम या क्षयको सहायता प्राप्त होनेपर होते हुए भी जीवरूप ही होते है और इस आधारपर ही उन्हें वहाँपर स्वयंकृत भाव कहा है। उक्मादिकी निमित्तकारणताका वहाँ निषेध नहीं है, यह स्पष्ट है। कथन २० और उसकी समीक्षा
(२०) उत्तरपक्षने त. च. ५० ३८ पर यह भी लिखा है कि "मोह, राग, द्वेष आदि भावोंको प्रागममें जो आगन्तुक कहा गया है उसका कारण इतना ही है कि वे भाव स्वभावके लक्ष्यसे न होकर परके लक्ष्पसे होते हैं, वे जोबके ही भाव हैं और जीव हो स्वयं स्वतन्त्र कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है, पर वे परफे लक्ष्यसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन्हें आगन्तुक कहा गया है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है।" पूर्वपक्षको उत्तरपक्षकी इस बातको मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु प्रश्न यह है कि इन भावोंकी उतात्तिमें शुभाशुभ कर्मोदय या व्यकोदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारणता उत्तरपक्षको अभीष्ट नहीं है, जिसे किसी भी हालतमें टाला नहीं जा सकता है। वास्तव में यही उसे स्वीकार्य होना चाहिए । कथन २१ और उसकी समीक्षा
(२१) बागेतच. पु. ३८ पर ही उत्तरपक्षने यह लिखा है कि "इस प्रकार अपरपक्षने अपने पक्षके समर्थन में यहाँ तक जितने भी आगम प्रमाण दिये हैं उनसे यह तो त्रिकालमें सिद्ध नहीं होता कि अन्य द्रव्य तभिन्न अन्य व्यके कार्यका वास्तविक कर्ता होता है। किन्तु उनसे यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं उपादान होकर अपना कार्य करता है और उसके योग्य बाह्य सामग्री उसमें निमित्त होती है।" पूर्वपक्षने यह अपने वक्तव्योंमें बार-चार स्पष्ट किया है कि पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंके मध्य प्रश्न द्रव्यकोदयको संसारी आत्माके विकार भाव और चतुर्गतिभ्रमणमें उपादानकर्ता, यथार्थकर्ता या मुख्यकर्ता मानने, न माननेका नहीं है, क्योंकि दोनों पक्ष द्रम्पकर्मोदयको उपादानकर्ता, यथार्यकर्ता या मुख्यकर्ता नहीं मानते, ससे दोनों निमित्तकर्ता, अयथार्यकर्ता मा उपचरितकर्ता ही मानते है । परन्तु दुःख और आश्चर्य इस थातका है कि उत्तरपक्ष अपने वक्तव्यमे बार-बार इसी मिथ्या धातको दोहराता मालूम पड़ता है कि पूर्वपक्ष प्रत्यकर्मको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्मति भ्रमणमें पधार्थकर्ता मानता है, जब कि वह उसे कार्यकारी निमित्त कारण बतलाता और सिद्ध करता आ रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि तत्त्वचर्चा उत्तरपक्षका लक्ष्य तत्व फलित करनेका न होकर केवल स्वमतकी उचित या अनुचित उपायों द्वारा पुष्टि करनेका हो रहा है और है।