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शंका-समाधान १ की समीक्षा
उपचार-प्रवृत्तिके इन उदाहरणोंके प्रकाश में प्रकृप्तमें भी ज्ञातव्य है कि समयसार गाथा १०५ और उसकी टीका मात्माको जो पुद्गलकर्मका कबितलाया गया है वह उपचारसे बतलाया गया है, जो इस आधारपर सिद्ध होता है कि आत्मामें पुद्गलकर्मके कर्तृत्वका ययार्थ रूपमें अभाव है, क्योंकि कर्मरूप परिणमन आत्माका न होकर पुद्गलका ही होता है । तथा समयसार माया १०५ और उसकी टीकाके अनुसार वह यात्मा पुदगलके उस कर्मरूप परिणमनमें सहायक होमे रूपसे वास्तविक निमित्त (सहायक) होता है । अतः यहाँपर भी आलापपद्धतिके पूर्वोक्त वचनका समन्वय होता है।
तात्पर्य यह है कि आत्मामें पुद्गलकर्मके उपचरितकर्तृत्वकी सिद्धि के लिए समयसार गाथा १०५ और उसकी टोकाके अनुसार उसमें पुद्गलके कर्मरूप परिणमनके प्रति सहायक होने रूपरो वास्तविक निमित्तकारणताको स्वीकार करना आवश्यक है। अर्थात समयसार गाथा १०५ और उसकी आत्मस्याति टोकामें यही बतलाया गया है कि जीवके हेतुभूत अर्थात् सहायक होने रूपसे कारण होनेपर ही पुद्गलकर्मका वन्धरूप परिणमन देखा जाता है, अतः "जीवने कर्म किया' यह उपचान्से कहा जाता है। उसी टीका यह बात और भी स्पष्ट रूपसे मतला दी गई है कि जबतक आत्माका परिणमन अज्ञानरूप ( मोह, राग और देष रूप) होता रहता है तबतक ही पुद्गलका कर्मरूप परिणमन होता है और जब आत्माका अज्ञानरूप ( मोह, राग और द्वेषरूप) परिणमन होना समाप्त हो जाता है तब पूदगलका कर्मरूप परिणमन होना भी समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि नीवको पुद्गलके कर्मरूप परिणमनको रोकनेके लिए अपने मोह, राग और 'ष रूप अज्ञानको समाप्त करने की प्रेरणा आगममें की गई है।
इससे ज्ञात होता है कि आत्मामें पुद्गलकमकर्तृत्वका उपचार आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र नहीं है, अपितु साहाय्य-सहायक भावरूप वास्तविक निमित्त नैमित्तिकभावपर आधारित है। सर्वत्र उपचारप्रसिद्धिके लिए इसी प्रक्रियाका अवलम्बन उपयुक्त होता है।
___ इस तरह उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त बक्तव्यमें जो कुछ लिखा है उसके विषयों पूर्वपक्षका केवल इतना ही मन्तव्य है कि जहाँ उत्तरपक्ष निमित्त (सहायक) कारणको कार्यके प्रति सहायक न होने रूपसे स्वीकृत अकिंचित्करताके आधारपर अवास्तविक मानता है और निमित्तकारणभूत वस्तुमें स्वीकृत उपपरित कर्तृत्वको आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोगित मात्र मान लेता है वहाँ पूर्वपक्ष तस निमित्त (सहायक) कारणको कार्यके प्रति सहायक होने रूपसे स्वीकृत कार्यकारिताके आधारपर वास्तविक मानता है और उस निमित्तकारणभूत वस्तुमें स्त्रीकृत उपवरित कर्तृत्वको आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित न मानकर उसे वास्तविक ही मानता है। इस अभिप्रायसे ही पूर्वपक्षने समयसार गाया १०५ की टीकाका अर्थ करते हुए जो यह लिखा है कि "आत्मा द्वारा पुद्गलका कर्मरूप किया जाना यह उपचार ही है अर्थात् निमित्तनमित्तिक भावकी अपेक्षासे ही है। परमार्थ भूत नहीं है अर्थात् उपादानोगादेय भावको अपेक्षासे नहीं है।" वह संगत है।
कथन ३५ और उसकी समीक्षा
(३५) उत्तरपक्षने त० च. प० ५४ पर पूर्वपक्षके प्रति यह कथन किया है कि "अपरपक्षाने 'यः परिणमति स कर्ता' इत्यादि कालाको उद्धृत कर 'यः परिणमति' पदका अर्थ किया है. -''जो परिणमन होता है अर्थात जिसमें या जिसका परिणमन होता है।" जबकि इस पदका वास्तविक अर्थ है-"जो परिणमता है