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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा होनेसे कहा जाता है। यह हम अनेक जगह कह चुके हैं कि जैसे घटोत्पत्ति के प्रति निमित्तकारणभूत कुम्भकार घटका मुख्य कर्ता तो नहीं है, क्योंकि कुम्भकार घटरूप परिणत नहीं होता, फिर भी मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें वह वास्तविक रूपमें सहायक होता है । अतः उसे घटका उपचरितकर्ता कहा जाता है।
उपचरितकारण और उपचरितकर्ता दोनोंमें यह अन्तर है कि निमित्त कारण कार्यके प्रति सहायक हाने रूपसे वास्तविक कारण होकर भी कार्यसे भिन्न वस्तुरूप होता है, इसीलिए उसे उपचरित कारण कहते है और कार्यसे भिन्न उस वस्तुमें सहायक होने रूपसे वास्तविक निमित्तकारणताके आधारपर आलापपञ्चतिके अनुसार कर्तत्वका आरोप किया जाता है। इसलिए उसे उपचारतकर्ता कहा जाता है। यतः उपचरित कारण और उपचरिकर्ता दोनों ही कार्यसे भिन्न वस्तुरूप होते हैं, अतः दोनों ही असद्भूत व्यवहारनयके विषय होते हैं।
(३) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चारों वस्तुओंको उपचरित वस्तु कहा जाता है। इसका कारण यह है कि ये चारों वस्तुएँ नाना अणुओंके पिण्डस्प होनेसे सखण्ड हुआ करती है । तथा सखण्ड होकर भी स्कन्ध रूप से अखण्ड होती है। अतः स्कन्धरूपसे अखण्डरूपताको प्राप्त ये चारों वस्तुएँ अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयका विषय है और चूंकि नाना अणुओंके पिष्टरूप होनेसे उनमें सखण्डरूपता भी रहती है, अतः उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका भी विषय होती है।
आलापपद्धतिके उल्लेखानुसार जो उपचारको प्रवृति होती है वह भी भिन्न-भिन्न स्थलोंमें भिन्नभिन्न प्रकारके निमित्तोंके माघारपरे होती है। ऊपर कुम्भकारमें घटकर्तृत्वके उपचारको प्रवृत्तिके विषय में बतलाया जा चुका है कि कुम्भकार इसलिए उपचरित कर्ता है कि वह घटकार्यके प्रति सहायक होनेके आधारपर वास्तविक निमित्त कारण होता है। यहां आलापपद्धतिके अनुसार उपचारप्रवृत्तिके अन्य स्थलोंका भी दिग्दर्शन कराया जाता है ।
मिट्टीके घड़ेको जो घीका घड़ा कहा जाता है वह उपचार रूपमें ही कहा जाता है और वह इस आधारपर कहा जाता है कि उस घड़ेमें पीरूपताके अभावके साथ घड़ा और घी में विद्यमान संयोग संबंधाश्रित वास्तविक आधाराधेयभाष निमित्त बना हुआ है। "अन्न ही प्राण है" यहाँपर जो अन्नको प्राण कहा जाता है बह उपचारसे कहा जाता है और वह इस लिए कि अन्नमें प्राणरूाताके अभाघके साथ प्राणोंकी सुरक्षाकी वास्तविक सहायकता पाई जाती है। "गंगा नदी में टपरा है" इस कथनका अर्थ है कि 'गंगाके तटपर टपरा है' सो यह सपरित अर्थ है और यह अर्थ इस आधारपर किया जाता है कि गंगा नदीमें टपराकी स्थिति रूप मुख्याधुके अभावके साथ गंगा और तटमें वास्तविक सामीप्य पाया जाता है। लोकमें बालकको सिंह कह दिया जाता है वह भी उपचारसे कहा जाता है और वह इस आधारपर कि यद्यपि बालकमें सिंह, रूपताका तो अभाव है, किन्तु सिंहके समान गुणोंका वास्तविक रूपमें सद्भाव है । "मंच (मचान) चिल्लाते है" इसका जो 'मंचपर बैठे पुरुष चिल्लाते हैं, यह अर्थ किया जाता है वह भी उपचारसे किया जाता है, क्योंकि उसमें मंचरूप मुख्यार्थक अभावके साथ मंच और पुरुषोंमें वास्तविक संयोग पाया जाता है । "धनुष दौड़ता है" इस वाक्यका जो 'घुनधारी पुरुष दौड़ता है' यह अर्थ किया जाता है वह भी उपचरित अर्थ है
और वह इसलिए कि यहाँ पर धनुष रुप मुख्यार्थके अभाबके साथ धनुष और पुरुषमें वास्तविक संयोग है। इस विषयमें लोक और आगममें और भी ऐसे उदाहरण मिल सकते हैं, जिनमें उपर्युक्त प्रकार मुख्यरूपताके अभावफे साथ पृथक-पृथक् प्रकारके निमित्तोंका वास्तविक सदभाव पाया जाता है।