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शंका समाधान १ की समीक्षा तु उपचार एव न तु परमार्थ: " इस पदका अर्थ है वह विकल्प तो उपचार ही है अर्थात् उपचरित अर्थको विषय करने वाला ही है, परमार्थरूप नहीं है अर्थात् यथार्थ अर्थको विषय करने वाला नहीं है"। उसमें उत्तरपक्षने "स तूपचार एव न तु परमार्थ" इसका अर्थ करते हुए यह दिखलानेका प्रयत्न किया है कि इसमें आये हुए "स:" पदका अर्थ "वह विकल्प" ही स्वीकार करना उचित है। इस सम्बन्धमें मेरा कहना हैं कि पूर्वपक्षने "स तूपचार एव न तु परमार्थः " इस पदका अर्थ करते हुए "सः" पदका "आत्मा द्वारा पुद्गलका कर्मरूप किया जाना यह अर्थ किया है । उमके अतिरिक्त और अभिप्राय नहीं लिया जा सकता है । इसी तरह पूर्वगभने 'म तूपचार एवं इस संपूर्ण पदका जो "आत्मा द्वारा पुद्गलका कर्मरूप किया जाना यह उपचार ही है अर्थात् निमित्तनैमित्तिक भावकी अपेक्षासे ही है" यह अर्थ किया है, इससे वह यह बताना चाहता है कि यतः उपचारकी प्रवृत्ति आलापपद्धतिके वचन के अनुसार मुख्यके अभाव और निमित्त तथा प्रयोजनके सद्भावमें ही हुआ करती है । अतः इससे स्पष्ट होता है कि आत्माको जो उपचारसे पुद्गल कर्मका कर्त्ता कहा गया है वह इसलिए कि एक तो आत्मा स्वयं (आप) पुद्गलकर्मरूप परिणत नहीं होता। दूसरे, वह जब तक अपना अज्ञानरूप परिणमन करता रहता है तब तक वह पुद्गल के कर्मरूप परिणमनमें सहायक हुआ करता है, जो इस बातको सिद्ध करता है कि उपचार केवल आकाश कुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र न होकर निमित्तनैमित्तिक भावको वास्तविकता के आधारपर परमार्थ, मास्तविक और सत्य है । इस तरह उतरपक्षनेत० पु० ५३ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त अनुच्छेदमें ही आगे जो यह लिखा है कि "हमें आश्चर्य है कि अपरपक्षने उक्त वाक्यके प्रारम्भ में आये हुए "स:" पदका अर्थ "विकल्प" न करके "आत्मा द्वारा पुद् गलका कर्मरूप किया जाना" यह अर्थ कैसे कर लिया" । सो यह उसने पूर्वपक्ष के अभिप्रायको न समझ गलत समझा है, जैसा कि ऊपरके विवेचनसे स्पष्ट हैं । इसी तरह उसने इसी अनुच्छेदमें आगे जो यह लिखा है कि "निमित्त व्यवहार और नैमित्तिक व्यवहार उपचरित होता है" सो इसमें हमें एतराज नहीं है । परन्तु इसके आगे जो यह लिखा है कि " और यह तब बनता है जब परने परके कार्यको किया" ऐसे विकल्पकी उत्पति होती हैं" सो उसका ऐसा लिखना संगत नहीं है, क्योंकि "परने परके कार्यको किया" यह विकल्प तो उपचार ही है और यह तब बनता है जब एक वस्तु दूसरी वस्तुको कार्योत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण होती है ।
उपचारकी स्थिति भिन्न-भिन्न स्थलों में भिन्न-भिन्न प्रकारसे निर्मित होती है, जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
(१) निमित्तकारणको कार्यके प्रति जो उपचारित कारण कहा जाता है उसमें हेतु यह है कि निमित्त. कारण उपादानकारणकी तरह कार्यरूप परिणत न होकर कार्योत्पत्ति में सहायक मात्र हुआ करता है। लेकिन जिस प्रकार उपादानकारणका कार्यरूप परिणत होना वास्तविक है उसी प्रकार निमित्तकारणका उपादान कारणको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होना भी वास्तविक । घटोत्पत्ति में निमित्तकारणभूत कुम्भकार मिट्टीकी तरह रूप परिणत न होकर मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें वास्तविक रूपसे सहायक होता है । इसी लिए उसे उपचारित कारण कहा जाता है ।
(२) निमित्तकारणको कार्यके प्रति जो उपचरितकर्त्ता कहा जाता है वह आलाप पद्धतिके उपचारलक्षणके अनुसार उसमें मुख्य कर्तृत्वका अभाव और वास्तविक रूपमें सहायक होने रूप से निमितकारणताका सद्भाव १. मुख्याभावे सति निमित्ते प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते ।