________________
शंका-समाधान १ की समीक्षा
और है कि पं० फूलचन्द्र नीके प्रस्तावके अनुसार दोनों पक्ष प्रत्येक प्रश्नपर यदि अपने-अपने विचार प्रस्तुत करते तो दोनों पक्षोंको अन्तिम सामग्री एक दूसरे पक्षको समालोचनासे अछूती रहती । और इस तरह दोनों पक्षोंको अन्तिम सामग्रीपर मतभेद रहनेपर तत्व निर्णय करनेका अधिकार तत्त्वजिज्ञासुओं को प्राप्त होता । परन्तु जिस रूप में तत्त्वचर्चा सामने है उसमें अन्तिम उत्तर उत्तरपक्षका होनेसे तत्त्वजिज्ञासुओं को तत्त्वनिर्णय कर लेना संभव नहीं रह गया है । इस दृष्टिसे भी इस समीक्षा की उपयोगिता बढ़ गई है । उत्तरपक्ष द्वारा अपने उत्तर में विपरीत परिस्थितियोंका निर्माण
पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि प्रकृत प्रदनको प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्षका आशय इस बातको निर्णीत करनेका था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाष और चतुर्गतिभ्रमण में निमित्त रूपसे अर्थात् सहायक होने रूपसे कार्यकारी होता है या वह वहाँ पर सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहता है व संसारी कर्म उदका सहयोग प्राप्त किये बिना अपने आप ही विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण करता रहता है। उत्तरपक्ष प्रश्नको प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षके इस आशयको समझता भी था, अन्यथा वह अपने तृतीय दौरके अनुच्छेद में पूर्वपक्ष के प्रति ऐसा क्यों लिखता कि "एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है परन्तु जानते हुए भी उसने अपने प्रथम दौर में प्रश्नका उत्तर न देकर उससे भिन्न नयविषयता और कर्तृकर्म सम्बन्धको अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चाको प्रारंम्भ कर दिया। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने उत्तरमें विपरीत परिस्थितियोंका निर्माण किया है और इसके कारण ही पूर्वपक्षको अपने तृतीय दौरके अनुच्छेद में यह लिखना पड़ा कि 'आपके द्वारा इस प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्य में दिया गया है और न दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है- यद्यपि आपके प्रथम वक्तव्यके ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए इस ओर आपका ध्यान दिलाया गया था । आपने अपने दोनों वक्तव्यों में निमित्त कर्तृकर्म सम्बन्धको अप्रासंगिक चर्चा प्रारम्भ करके मूल प्रश्नके उत्तरको टालने का प्रयत्न किया है।
उत्तरपक्षका पूर्वपक्ष पर उल्टा आरोप
कपर किये गये स्पष्टीकरण से यह ज्ञात हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौर के अनु० २ में जो यह लिखा है कि 'वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे जो उत्तर हमारी ओरसे दिया गया है यह अप्रासंगिक है या अपरपक्षका यह कथन अप्रासंगिक हो नहीं सिद्धान्तविरुद्ध है जिसमें उसकी ओरसे विकारका कारण बाह्य सामग्री है इसे यथार्थ कथन माना गया है। सो उसका उत्तरपक्षका ऐसा लिखना 'उल्टा चोर कोतवालको डाँटे' जैसा ही है, क्योंकि उसने स्वयं तो पूर्वपक्ष के प्रश्नका उत्तर न देकर नयविषयता और कर्तृ-कर्म सम्बन्धको अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चा प्रारम्भ की, लेकिन अपनी इस त्रुटिको स्वीकार न कर उसने अप्रासंगिकताका उल्टा पूर्वपक्षपर ही आरोप लगाया। इससे यही स्पष्ट होता है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर देने में आनाकानी की है और इसे छिपानेके लिये ही उसने उक्त अप्रासंगिक और अनावश्यक प्रारम्भ की। यही कारण है कि उसके इस प्रयत्नको पूर्वपक्ष ने अपने वक्तव्यमें मूल प्रश्न के उत्तरको टालने का प्रयत्न कहा है । इसी तरह उत्तरपक्ष ने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि 'विकारका कारण बाह्यसामग्री है इसे यथार्थ कथन माना गया है' सो यह भी पूर्वपक्ष के ऊपर उत्तरपक्षका मिथ्या आरोप है, क्योंकि पूर्वपक्ष, जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, विकारको कारणभूत बाह्यसामग्रीको उत्तरपक्ष के समान अयथार्थ कारण ही मानता है ।
इस विषय में दोनों पक्षोंके मध्य यह मतभेद अवश्य है कि जहाँ उत्तरपक्ष विकारकी कारणभूत उस