________________
शंका ४ और उसका समाधान
२. प्रतिशका ३ के आधारसे विवेचन तत्काल प्रतिशंका ३ के आधारसे तृतीय पत्रक पर विचार करना है। इसके प्रारम्भमें अपर पक्षने यह संकेत किया है कि हमने प्रथम उत्तरमें नियमसारकी जो तीन गाथाएँ उद्धृत की हैं उनका प्रकृत विषयसे कोई सम्बन्ध नहीं, किन्तु बात ऐसी नहीं है। उन गाथाओं द्वारा हमारा यह दिखलाना ही प्रयोजन घा कि निश्चय मोक्षमार्ग निश्चय रत्नत्रय परिणत आत्मा है वह आत्मस्वभावके अवलम्बन करनेसे ही उत्पन्न होता है। अतः व्यवहार धर्मको उसका सापक व्यवहारनयसे ही माना जा सकता है। यह परमार्थ कथन नहीं है, निमित्तका काम कराना मात्र इसका प्रयोजन है।
अपने दूसरे पत्रकमें अपर पक्षने प्रवचनसार आदि अनेक ग्रन्थोंके प्रमाण दिये है इसमें सन्देह नहीं किन्तु क्रिस नयसे उन शास्त्रोंमें वे प्रमाण उल्लिखित किये गये हैं और उनका आशय क्या है इस विषयमें अपर पक्षने एक शब्द भी नहीं लिखा है। हमारी दृष्टि तो नयदृष्टिसे उनका आशय स्पष्ट करनेको है, जब कि अपर पक्ष उस स्पष्टीकरणको उपेक्षाकी दृष्टि देखकर उसकी अवहेलना करता है । क्या इसे ही परम प्रमाणभूत, मूलसंघके प्रतिष्ठापक थी कुन्दकुन्दाचार्य तथा अन्य आध्यात्मिक प्रामाणिक आचार्योक आर्ष वाक्योंको परम श्रद्धालु और तत्ववेत्ता बनकर स्वीकार करना कहा जाय इसका अपर पक्षको ही निर्णय करना है। पूरे जिनागमको दृष्टि में रखकर उसके हार्दको ग्रहण कर अपने कल्याणके मार्गमें लगा जाय यह हमारी दृष्टि है और इसी दृष्टिसे प्रत्येक उत्तरमें हम यथार्थका निर्णय करनेका प्रयत्न करते आ रहे है। अपर पक्ष भी इस मार्गको स्वीकार कर ले ऐसा मानस है । स्व-परके कल्याणका यदि कोई मार्ग है तो एकमात्र यही है।
हमने अपने दूसरे उत्तरमें व्यवहार धर्मको असद्भूत व्यवहार नपसे निश्चय धर्मका साधक लिखकर उन प्रमाणोंको टालनेका प्रयत्न नहीं किया है, किन्तु उनके हार्दको ही स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है । व्यत्रहारधर्म आत्माका धर्म किस नयको अपेक्षा कहा गया है इसका स्पष्टीकरण करते हुए बृहद्व्यसंग्रह गाथा ४५ में बतलाया है
तत्र योऽसो बहिविषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्यागः स उपचरितासद्भूतव्यवहारेण ।
उसमें बाह्यमें जो पांचों इन्द्रियों के विषय आदिका त्याग है वह उपवरित असद्भूत व्यवहारनयसे चारित्र है।
यह आगम प्रमाण है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि उपचरित असद्भूत व्यवहारलयकी अपेक्षा ही व्यवहार धर्म चारित्र या धर्म संज्ञाको धारण करता है । यह वास्तव, आत्माका धर्म नहीं है । ऐसी अवस्थामें उसे निश्नम धर्मका सावक उपचरित असद्भूत व्यबहारनयसे ही तो माना जा सकता है । निश्चय धर्म फेवल हो और व्यवहार धर्म न हो ऐसा नहीं है । ये चतुर्थादि गुणस्थानों में युगपत् वर्तते हैं ऐसा एकान्त नियम है । परस्पर अविनाभावी हैं। इसीसे आगममें व्यवहार धर्मको निश्चय धर्मका साधन (निमित्त) कहा गवा है ऐसी जिसकी श्रद्धा होती है उसके निश्चय धर्मके साथ व्यवहार धर्म होता ही है। किन्तु इसके विपरीत जिसकी यह श्रद्धा बनी हुई है कि म्यवहार धर्मको अंगीकार करना मेरा परम कर्तव्य है, भात्र उसके पालन करनेसे आत्मधर्मकी उत्पत्ति हो आयगी और ऐसी श्रदायश झायकस्वभाव स्वरूप यथार्थ साधन आत्माके अवलम्बनकी ओर दृष्टिपात नहीं करता यह त्रिकालमें निश्चयधर्मका अधिकारी बननेका