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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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कथन १४ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षनेत० च० पू० ९१ पर ही आगे लिखा है -- अपरपक्षने प्रकृत में पंचास्तिकाय गाथा १७० की टीका, पं० फूलचन्द जी कृत तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका और पादपुराण के प्रमाण देकर प्रत्येक कार्य में बाह्य सामग्री की आवश्यकता सिद्ध की है। समाधान यह है कि प्रत्येक कार्य बाह्याभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रता में होता है, इस सिद्धान्त के अनुसार नियत बाह्य सामग्री नियत आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक होने से व्यवहारनय से आगम में ऐसा कथन किया गया है किन्तु इतने मात्र से इसे यथार्थ कथन न समझकर व्यवहार कथन ही समझना चाहिये। एकके गुण-धर्मको दूसरेका कहना यह व्यवहारका लक्षण है। अतएव व्यवहारनयसे ऐसा ही कथन किया जाता है जो व्यवहारवचन होनेसे आगममें और लोकमें स्वीकार किया गया है।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है
पूर्वपक्ष द्वारा ० ० ९३ पर उद्धृत पंचास्तिकाय गाथा १७० की टीका, पं० फूलचन्द्रजी कृत तस्यार्थसूत्र की टीका और पार्श्वपुराणके कथनीके विषय में उत्तरपक्षने अपने उक्त कथनमें विरोध न दिखला - कर उसमें उसने केवल यह लिखा है कि 'नियत बाह्य सामग्री नियत आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक होनेसे व्यवहारनयसे मागम में ऐसा कथन किया गया है।' सो उत्तरपक्ष के इस कथन के विषय में ऐसा कहा जा सकता हूँ कि वह पक्ष नाकको सीधे मार्गसे न पकड़कर घुमावदार मार्गसे पकड़ना चाहता है, अर्थात् यह बाह्य सामग्रीको जो आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक मानता है, सो इससे तो कार्योत्पत्ति में बाह्य सामग्रीकी उसको मान्य अर्किचित्करताका खण्डन हो होता है। दूसरे बाह्य सामग्रीको आभ्यन्तर सामग्रीको सूचक मानने में उसका आधार क्या है ? यह प्रश्न उसके सामने खड़ा हो जाता है, जिसका समाधान उसके पास नहीं है, तीसरे, बाह्य सामग्रीको कार्योत्पत्ति में जब वह सर्वथा अकिंचित्कर ही मानता है, तो उसे बाह्य सामग्री से आभ्यन्तर सामग्री में कार्योत्पत्तिको सूचना कैसे प्राप्त होती हैं, यह बात भी उसे विचारणीय बनी जाती है। चौथे, जब बाह्यसामग्री आभ्यन्तर सामग्री से होनेवाली कार्योत्पत्तिमें सर्वथा अकिचित्कर ही बनी रहती है ऐसी मान्यता उसकी है तो उसको बाह्य सामग्री द्वारा आभ्यन्तर सामग्री से होनेवाली कार्योत्पत्ति में सूचना प्राप्त करने की आवश्यकता हो क्या रह जाती है ? यह भी उसे सोचना है ।
उत्तरपक्ष ने अपने वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि व्यवहारनयसे ऐसा कथन किया जाता है सो यह निर्विवाद है. क्योंकि बाह्य सामग्री आम्मन्तर सामग्री से होनेवाली कार्योत्पत्ति में सहायक होने रूपसे व्यवहार कारण ही होती है, आभ्यन्तर सामग्री की तरह निश्चय कारण नहीं। इसलिये वह निश्चयनयका विषय न होकर व्यवहारनयका ही विषय मानी जा सकती है क्योंकि कार्य कारणभावके प्रसंग में निश्चयनयका विषय वस्तुका कार्यरूप परिणत होना ही मान्य किया गया है। उत्तरपक्ष व्यवहारनयके विषयको जो कपोलकल्पित या कथनमात्र मान लेना चाहता है उसका निराकरण प्रश्नोत्तर १ की समीक्षा में स्थान-स्थानपर किया जा चुका है ।
स०-३०
उत्तरपक्षने अपने वक्तव्य में " एकके गुण-धर्मको दूसरेका कहना" इसे जो व्यवहारनयका लक्षण बतलाया है सो इस विषय में भी पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है । परन्तु एकके गुण-धर्म को दूसरेका वहीं पर कहा जाता है जहाँ मुख्यरूपताका अभाव व निमित्त और प्रयोजनका सद्भाव रहा करता है अन्यथा नहीं । आलाप पद्धतिके 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते च उपकारः प्रवर्तते' इस बचनका यही आशय है । इस विषयको भी प्रयनोसर १ की समीक्षा में स्पष्ट किया जा चुका है ।