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शंका-समाधान १ की समीक्षा
समर्थन करना चाहा है 1 किन्तु इस पचनसे भी इतना ही ज्ञात होता है कि जिसके अनन्तर जो होता है वह उसका कारण है और इतर कार्य है। यही बात इसी सूत्रकी व्याख्या इन शब्दोंमें कहीं गई है-"तस्य कारणस्य भावे कार्यस्य भाबित्व तद्भावभावित्व" (उसके अर्थात् कारणके होनेपर कार्यका होना यह तद्भावभावित्व है) । किन्तु यह सामान्य निर्देश है। इससे बाहा सामग्रीको उपचरितकारण क्यों कहा और आभ्यन्तर कारणको अनुपचारित कारण क्यों कहा, यह ज्ञान नहीं होता" ।
इसकी समीक्षा इस प्रकार है
पूर्वपक्षने त० च०५० २० पर किये गये अपने उक्त कथनके आगे यह भी लिखा है कि “इसमें अपादान कारणके समान निमित्तकारणमें भी कार्यके प्रति अन्वय और व्यतिरेक माने गये है। अतः जिस प्रकार कार्यके प्रति उपादानकारणभूत वस्तु अपने ढंगसे आषय रूपसे वास्तविक कारण होती है उसी प्रकार कार्यके प्रति निमित्तभूत वस्तु भी अपने से अर्थात उपादानके सहकारी रूपसे वास्तविक कारण होती है। उसकी अर्थात् निमित्त भूत वस्तुकी यह उपादानसहकारितारूप कारणता काल्पनिक नहीं है ।'' इस कथनसे स्पष्ट है कि पूर्वपक्षने प्रमेयरत्नमालाके उपर्युक्त वचनका उसरण निमित्तकारणको उसरपक्षको मान्य काल्पनिकताका निषेध करनेके लिये दिया है । अतएव उत्तरपक्ष द्वारा की गयी पूर्वपक्षको उपर्युक्त आलोचना निरर्थक एवं अनुपयुक्त है।
आगे उत्तरपक्षने त. च० १० ५५ पर ही लिखा है कि “यह तो अपरपक्ष भी स्वीकार करेगा कि एक द्रनमें एक कालमें एक हो कारणधर्म होता है और उस धर्मके अनुसार वह अपना कार्य भी करता है। जैसे कुम्भकारमें जब अपनी क्रिया और विकरण करनेका कारणधर्म है तब वह अपनी क्रिया और विकल्प करता है. गिदीकी घटनिष्पतिरूप क्रिया नहीं करता। ऐसी अवस्था में कुम्भकारको घटका का उपचारसे ही तो कहा जायेगा" । पूर्वपक्षको इसमें कोई विवाद नहीं है । वह भी ऐसा ही मानता है। उत्तरपक्षने इसी अनुच्छेदमें पुनः लिखा है कि "और उस उपचारका कारण यह है कि जब कुम्भकारको विवक्षित क्रिया और विकल्प होता है तब मिट्टी भी उपादान होकर घटरूप परिणमती है" सो इसमें भी पूर्वपक्षको कोई विवाद नहीं है । आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि “इस प्रकार कुम्भकारकी विवक्षित क्रियाके साथ घट कार्यका अन्वय ध्यतिरेक बन जाता है" । यहाँ पर इतना ध्यान और रखना चाहिए कि कुम्भकारकी उस क्रियाके साथ घट कार्यका जो अन्नय-पतिरक बनता है वह इस आधार पर बनता है कि कुम्भकारको वह क्रिया घटकार्यके प्रति सहायक होतो देखी जाती है ।
आगे इसी अनुच्छेदमें तत्तरपक्षने लिखा है कि "यही कारण है कि कुम्भकारको घटका कर्ता उपचारसे कहा गया है। किन्तु ऐसा उपचार करना तभी सार्थक है जब वह यथार्थका ज्ञान करावे, अन्यथा वह व्यवहाराभास ही होगा यह वस्तुस्थितिका स्वरूप निर्देश है। इससे बाह्य सामग्रीमें अन्य ट्रष्यके कार्यको कारणता काल्पनिक ही है यह ज्ञान हो जाता है। फिर भी आगममें इस कारणताको काल्पनिक न कहकर जो उपचरित कहा है यह सप्रयोजन कहा है खुलास पूर्वमें ही किया गया है और आगे भी करेंगे" ।
इस सम्बन्धम मेरा कहना है कि घटकार्यके प्रति कुम्भकारको जो उपचारसे कप्त कहा गया है वह इसलिये कहा गया है कि वह घटरूप गरिणत न होकर मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें मिट्टीका सहायक होता है। अतः उत्तरपक्षका यह कथन कि "किन्तु ऐसा उपचार करना तभी सार्थक है जब वह यथार्थका ज्ञान करावे,