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शंका-समाधान १ को समीक्षा
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लक्ष्यमें रखकर यह नाथन व्यर्थ न होकर सार्थक और उपयोगी भी है। किन्तु इस आधारपर अपरपक्ष द्वारा इरा कचनको ही वास्तविक ठहराना किसी भी अवस्थामें उचित या परमार्थरूप नहीं कहा जा सकता है"।
इसकी समीक्षा इस प्रकार है
समयसार कलशमें जो कुछ बतलाया गया है उसे पूर्वपक्ष भी स्वीकार करता है । परन्तु वह कार्यक प्रति व्यवहारकर्ता या व्यवहार हेतु आदि शब्दों द्वारा प्रयुक्त हुए बाह्य पदार्थको उपचारकर्ता या उपचार हेतु स्वीकार करते हुए भी बाह्य पदार्थको उपचारको वास्तविक जगतः समापाय-प्रमानों आधार उसने अपने चमतव्योंमें बार बार स्पष्टीकरण किया है और इरा समीक्षामें भी उसका बार बार स्पष्टीकरण किया गया है । उसकी उत्तरपक्ष जान-बूझकर उपेक्षा कर रहा है।
बास्तबमें जिस प्रकार कार्यके प्रति उपादानकारण कार्यरूप परिणत होने रूपसे वास्तविक है उसी प्रकार निमित्तकारण भी उपादानको कार्यरूप परिणतिमें जसका सहायक होने रूपसे वास्तविक है। किन्तु निमित्तकारणको जो आगममें उपचार हेतु कहा गया है उसका कारण यह है कि जिस प्रकार उपादानकारण कार्यस अभिन्न वस्तुरूप होता है उस प्रकार निमित्तकारण कार्य से अभिन्न वस्तुरूप न होकर उससे वस्तुरूप होता है। इसी तरह वाह्य वस्तुको जो उपचरितकर्ता कहा जाता है उसका भी कारण यह है कि वह उपादानके समान कार्यरूप परिणत न होकर उपादानकी कार्यरूप परिणतिम नियमसे सहायक मात्र हुआ करती है, वह वहां अकिंचित्कर नहीं रहती है, इसलिए आलापपद्धतिके "मुख्याभावे” इत्यादि वचनके अनुसार उसे उपचरित फा भी कहा जाता है। उस रपक्षने अपने उपर्युक्त कपनमें स्वयं स्वीकार किया है कि बाह्य सामग्रीको आगममें जो उपचारका या उपचारहेतु कहा गया है उसका प्रयोजन है और इस प्रयोजनको लक्ष्यमें रखकर यह कथन व्यर्थ न होकर सार्थक और उपयोगी भी है।
यद्यपि उत्तरपक्षने अपने कथनमै बाह्य वस्तुको उपचारकर्ता और उपचार हेतु मानने में प्रयोजनका संकेत करते हुए भी वह प्रयोजन क्या है यह नहीं बतलाया है तथापि वह प्रयोजन यही है कि वह बाह्य वस्तु उपादानको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी हुआ करती है वह वहां सर्वथा अकिंचित्कर नहीं बनी रहती है। इसलिए उसको कार्यकारिता आवाशकुसुमके समान कल्पनारोपित नहीं है, अतएय वास्तविक है। उसे उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त कथनमें जो सार्थक और उपयोगी कहा है उससे भी यही ध्वनित होता है कि वार्य प्रति बाह्य वस्तुको उपचरितकारणता या उपचरितकर्तृता आकाशकुसुमके समान कल्पनारोपित मात्र न होकर पारमार्थिक ही है। इस तथ्यपर उत्तरपक्षको गम्भीरतासे ध्यान देना चाहिए । उत्तरपक्ष यदि इसे स्वीकार कर लेता है, तो फिर उत्तरपक्ष और पूर्व पक्षके मध्य प्रकृत विषयमें कोई विवाद नहीं रह जाता है। कथन ४३ और उसकी समीक्षा
(४३) कार्योत्पत्ति में जिस प्रकार उपादान कार्यरूप परिणत होने रूपसे कार्यकारी होता है उसी प्रकार निमित्त अपादानका सहायक होन रूपसे कार्यकारी होता है। निमित्त का कार्य' वापर केवल हाजिरी देना मात्र नहीं है। पूर्व पक्ष ने अपनी इस मान्यताकी पष्टिमें तः च०५०२२ पर एक उदाहरण अष्टसहस्री ५० १५० का दिया है. जिसका भाव यह है कि स्वर्ण जो केयूर आदि रूप परिणत होता है वह तभी होता है जब स्वर्णकारको व्यापार आदि रूप बाह्य साभग्नीका उसे सन्निपात (संयोग) प्राप्त होता है । अर्थात् जब तक