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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
तब तक वह स्वर्ण केयूर निर्दिष्ट देवागम स्तोत्रके जोबोंमें जो अनेक तरहके अर्थात् जीव जिस प्रकारका
स्वर्णको स्वर्णकारके व्यापार आदि रूप बाह्य सामग्रीका संयोग प्राप्त नहीं होता आदि रूप परिणत नहीं होता। दूसरा उदाहरण अष्टसहली पू० २६७ पर "कामादिप्रभवश्चित्र:" इत्यादि पद्य ९९ का दिया है, जिसका भाव यह है कि कामादिविकार उत्पन्न होते हैं वे सब पुद्गलकर्मके बन्धके अनुसार ही होते पुद्गलकर्म बद्ध होता है उसके अनुसार उसमे (जो मे ) मादिविकारोंकी उत्पत्ति होती है । ऐसा नहीं हैं कि वे विभिन्न प्रकारके काम, क्रोधादि पुद्गल कर्मबन्धके बिना भी उत्पन्न हो जाते हैं। तीसरा उदाहरण प्रवचनसार गाथा २५५ की टीकाका दिया है, जिसका भाव यह है कि एक ही प्रकारके बोजोम भूमिकी विपरीतता के कारण जिस प्रकार कार्योत्पत्तिको विपरीतता देखी जाती है उसी प्रकार प्रवास्तराग-लक्षण शुभोपयोगका फल भी पात्रकी विपरीतताके कारण विपरीत होता है । इसका हेतु उसी गाथाकी टीका यह दिया है कि कारण विशेष से कार्य में विशेषताका होना अवश्यंभावी है ।
इसके उत्तरमें उत्तरपक्ष ने त० ० ० ६०-६१ पर लिखा है कि "अपरपक्षने अपने पक्ष के समर्थन में आगमके जो तीन उदाहरण उपस्थित किये हैं उनमें से अष्टसहस्री पृ० १५० का उदाहरण निश्चय उपादान के साथ बाह्यसामग्री की मात्र कालप्रत्यासत्तिको सूचित करता है । देवागम कारिका ९९ से मात्र इतना ही सूचित होता है कि यह जीव अपने रागादिभात्रोंको मुख्य कर जैसा कर्मबन्ध करता है उसके अनुसार उसे फलका भागी होना पड़ता है। फलोपभोग में कर्म तो निमित्तमात्र है, उसका मुख्यकर्त्ता तो स्वयं जीव ही
| अपरपक्षने इस कारिकाके उत्तरार्द्धको छोड़कर उसे आगम वचन के प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है । इससे कर्म और जीवके रागादिभावों में निमित्तनैमित्तिक योग कैसे बनता है इतना ही सिद्ध होता है। अतएव इससे अन्य अर्थ फलित करना उचित नहीं है। तीसरा उदाहरण प्रवचनसार गाथा २५५ की टीकाका है । किन्तु इस वनको प्रवचनसार गाथा २५४ और उसकी टीकाके प्रकाशमें पड़ने पर विदित होता है कि इससे उपादान के कार्यकारीपनेका ही समर्थन होता है। रसपाककालमें बीजके समान भूमि फलका स्वयं उपादान भी हूँ इसे अपरपक्ष यदि ध्यानमें ले ले तो उसे इस उदाहरण द्वारा आचार्य किस तथ्यको सूचित कर रहे है इसका ज्ञान होने में देर न लगे। निमित्तनैमित्तिक भावकी अपेक्षा विचार करनेपर इस आगमत्रगण यह विदित होता है कि बीजका जिस रूप में अपने कालमें रसपाक होता है तदनुकूल भूमि उसमें निमित्त होती है और उपादानोपादेयभावकी अपेक्षा विचार करनेपर इस आगमप्रमाणसे यह विदित होता है कि भूमि बीजके साथ स्वयं उपादान होकर जैसे अपने कालमें इष्टार्थको फलित करती है वैसे ही प्रकृत में जानना चाहिए | स्पष्ट है कि इन तीन आगमप्रमाणोंसे अपरपक्ष मतका समर्थन न होकर हमारे अभिप्रायकी ही पुष्टि होती है । बाह्य सामग्री उपादान के कार्यकाल में उपादानकी क्रिया न करके स्वयं उपादान होकर अपनी ही क्रिया करती है, फिर भी बाह्य सामग्री के क्रियाकालमें उपादानका यह कार्य होनेका योग है, इसलिये बाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहार किया जाता है। इसे यदि अपरपक्ष निमितको हाजिरी समझता है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं हूं । निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री उपादान के कार्यका अनुरंजन करती हैं, उपकार करती है, सहायक होती है आदि यह सब कथन व्यवहारनय ( उपचारनय) का ही वक्तव्य हूँ, निश्चयनयका नहीं | अपने प्रतिषेधक स्वभाव के कारण निश्चयनयकी दृष्टिमें यह प्रतिषेध्य ही हूँ । आशा है। अपरपक्ष इस तथ्य के प्रकाश में उपादानके कार्यकालमें बाह्य सामग्रीमें किये गये निमित्तव्यबहारको वास्तविक ( यथार्थ) मानने का आग्रह छोड़ देगा ।"