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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा जिसे उपकार कहते हैं वह भी मान्यताका फल है और जिसे अपकार कहते हैं वह भी मान्यताका फल है । यह संयोगी अवस्था है । अत एव जिसके संयोगमें इसके होनेका नियम है उनका ज्ञान इस वचन द्वारा कराया गया है। इतना ही आशय इस गाथाका लेना चाहिए। हमने शंका ५ के अपने दूसरे उत्तरमें जो कुछ भी लिखा है, इसी आशयको ध्यानमे रखकर लिखा है। अतएव इस परसे अन्य आशय फलित करना उचित नहीं है।
प्रश्न १६ के प्रथम उत्तरमें हमने मोह, राम, द्वेष आदि जिन आगन्तुक भावोंका निर्देश किया है उसका आशय यह नहीं कि वे जीवके स्वयंकृत भाव नहीं हैं। जीव ही स्वयं बाध्य सामग्रीम इष्टानिष्ट या एकत्व वृद्धि कर उन भाळरूप परिणमता है, इसलिए वे जीवके ही परिणाम है । इसी तथ्यको ध्यान में रखकर आचार्य कुन्दकुन्दने प्रबचनसारमें यह वचन कहा है--
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो ।
सुद्धेण तदा सुद्धो हर्वाद हि परिणामसब्भावो ॥९॥ ऐसा इस जीवका परिणामस्वभाव है कि जब यह शुभ या अशुभरूपसे परिणमता है सब शुभ या अशुभ होता है और जब शुद्धरूपले परिणमता है तब शुभ होता है ।। ९॥
फिर भी मोह, राग, द्वेष आदि भावोंको आगममें जो आगन्तुक कहा गया है उसका कारण इतना ही है कि वे भाव स्वभाबके लक्ष्यसे न होकर परके लक्ष्यसे होते हैं। है वे जोबके ही भाव और जीव ही स्वयं स्वतंत्र कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है, पर वे परके लक्ष्यसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन्हें आगन्तुक कहा गया है यह उक्त कयनका तात्पर्य है।
इस प्रकार अपर पक्षने अपने पक्ष के समर्थनमें यहाँ तक जिलने भी आगम प्रमाण दिये हैं उनसे यह तो त्रिकालमें सिद्ध नही होता कि अन्य द्रव्य तभिन्न अन्य व्यके कार्यका वास्तविक कर्ता होता है। किन्तु उनसे यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं उपादान होकर अपना कार्य करता है और उसके योग्य बाह्य सामग्री उसमें निमित्त होती है। समयसार गाथा २७८-९७९ का क्या आशय है इसका विशेष खुलासा हम पूर्वमें ही कर आये हैं। एक जीव ही क्या, प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभाववाला है, अतएव जिस भावरूप वह परिणमता है उसका कर्त्ता वह स्वयं होता है। परिणमन करनेवाला, परिणाम और परिणमन क्रिया में तीनों बस्तुपनेवी अपेक्षा एक है, भिन्न-भिन्न नहीं, इस लिये जब जो परिणाम उत्पन्न होता है उसरूप वह स्वयं परिणम जाता है, इसमें अन्यका कुछ भी हस्तक्षेप नहीं । राग, वेष आदि भाव क्रमदियके द्वारा किये जाते हैं. यह व्यवहार कथन है। कर्मका उदय कर्ममें होता है और जीवका परिणाम जीवमें होता है ऐगी दो क्रियाएँ और दो परिणाम दोनों द्रव्यों में एक कालमें होते है, इसलिए कर्मोदयमें निमित्त व्यवहार किया जाता है और इसी निमित्त व्यवहारको लक्ष्यमें रखकर यह कहा जाता है कि इसने इसे किया । यह उसी प्रकारका उपचार वचन है जैसे मिट्टी धड़को घीका बड़ा कहना उपचार पचन है । तभी तो माचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गांथा १०७ में ऐसे कथनको व्यवहारनयका वक्तव्य कहा है।
१. अध्यात्म में रागाधिको पोद्गलिक बतलानेका कारण समयसार ५० से ५६ तक की गाथाओंमें रागादिकको जो पौद्गलिक बतलाया है उसका आशय यह नहीं कि उनका वास्तविक कर्मा पुद्गल है, जीव नहीं; या वे जीवके भाव न होकर पुद्गलकी पर्याय है ।