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शंका १ और उसका समाधान
है तो वे जीवके ही भाव और स्वयं जीव ही उन्हें उत्पन्न करता है। उनकी उत्पत्तिमें पुद्गल अणुमात्र भी व्यापार नहीं करता, क्योंकि एक व्यको परिणाम क्रियाको दुमरा द्रश्च त्रिकालमें नहीं कर सकता, अन्यथा तन्मयपनेका प्रसंग होनेसे दोनों द्रव्यों में एकता प्राप्त होती है । । समयसार गाथा ९९ १, या दो क्रियाओंका कर्ता एक द्रव्यको स्वीकार करना पड़ता है । ममयराार गाथा ८५ } । किन्तु ऐसा मानना जिनाजाके विरुद्ध है। जिनाशा यह है--
जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दबने ।
सो अण्णमसंकतो कह तं परिणामए दव्वं ।।१०३।। जो वस्तु जिस द्रव्य और गुणमें वर्तती है व अन्य द्रव्य और गुणमें संक्रमणको नहीं प्राप्त होती, अन्यरूपसे संक्रमणको नहीं प्राप्त होती हुई वह अन्य वस्तुको कैसे परिणमा सकती है, अर्थात् नहीं परिणमा सकती ॥१३॥
ऐसी अवस्थामें जीव में होने वाले मोह, राग और द्वेष आदि भाष अशुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा विचार करनेपर जीव ही है। यह कथन पथार्थ है, इसमें अणुमात्र भी सन्देह महीं। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर उपस' गाथाओंकी (५०-५६) टीकामे आचार्य जनसेनने अशुद्ध पर्यायाधिक निश्चयनयकी अपेक्षा उन्हें जीव स्वरूप ही स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, कर्ता-कर्म अधिकार गाथा ८८ में स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द उन्हें जीव भावरूपसे स्वीकार करो हैं । इसी तथ्यको आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त गाथाको टीकामें इन शब्दों में स्वीकार किया है
यस्तु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादि जीवः स मूर्तात्पुद्गलकर्मणोऽन्यश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः ||८८||
और जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, भवि रति आदि जीव है वे मृर्तीक मुद्गलकर्मसे अन्य चैतन्य परिणामके विकार हैं ॥८॥
इस प्रकार उक्त विवेचनसे यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि मोह, राग, द्वेष आदि भाव जीवके ही है । 'स्वतन्त्र: कर्ता इस नियमके अनुसार स्वयं जीन हो आप वर्ता होकर उनरूप परिणमता है। फिर भी समयसारमें उन्हें पौदगलिक इसलिए नहीं कहा कि वेरूप, रम, गन्ध और स्पर्शस्त्र रूप है या पद्गल आप कर्ता बनकर जनरूप परिणमता है। उन्हें पौद्गलिक कहनेका कारण अन्य है। बात यह है कि परम पारिजामिक भावको ग्रहण करनेयाले शुद्ध निश्चयनयके विषयभूत चिच्चमत्कार ज्ञायमस्वरूप आत्माके लक्ष्यसे उत्पन्न हुई आत्मानुभूतिमें उनका भान नहीं होता, इसलिए वे रागादिभाव जीवके नहीं ऐसा ममवसार ५० से ५६ तककी गाथाओंमें कहा गया है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए उक्त गाथाओंकी टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है
यः प्रीतिरूपो रागः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नस्वात् । योऽप्रीतिरूपो द्वेषः स संऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलंद्रव्यपरिणाममयत्वं सत्यनुभूतेभिन्नस्वात् । यस्तत्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयरबे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्।
जो प्रीतिरूप राग है यह सई ही जीवका नहीं है, क्योंकि पुद्गल द्रव्यके परिणामरूप होनेसे वह आत्मानुभूतिसे भिन्न है । जो अप्रीतिरूप द्वेष है वह सर्व ही जावका नहीं है, क्योंकि पुद्गलद्रव्य के परिणाम