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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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फिर यह पात्रको विशेषताको लक्ष्यमें रखकर कथन किया गया है, अतः इससे कार्य-कारणकी व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता। पात्रको विशेषताको दृष्टि में रखकर किसी कथनको विवक्षितमुख्य और अविवक्षित- पौण तो किया जा सकता है परन्तु उसे अवस्तु भूत- अपरमार्थ नहीं कहा जा सकता ।' ( ० ० पृ० ७९ ) ।
पूर्वी इस लेखले
हो'' शब्दका गौण अर्थ ही अभीष्ट है। इसकी पुष्टि पूर्वपक्ष द्वारा वहीं पर लिखे गये उक्त कथनसे हो जाती है । अतः उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें दूसरे 'अंगभूतम्' पदका अर्थ प्रकृत में 'गौण' है । किन्तु यह अर्थ न कर उसका अर्थ करते समय साभिप्राय उस पदको वैसा ही रख दिया है' ऐसा जो असत्य कथन कर दिया है, यह आश्चर्य और दुःखकी बात है ।
कथन १० और उसकी समीक्षा
त० ० पृ० ८९ पर ही आगे उत्तरपक्षने यह कथन किया है - "अपरपक्ष ने उक्त कारिकाका अपने अभिप्रायसे अर्थ करनेके बाद जो यह लिखा है कि "फिर यह पात्रकी विशेषताको लक्ष्यमें रखकर कथन किया गया है, अतः इससे कार्यकारणको व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता। पात्र की विशेषताको दृष्टिमें रखकर किसी serat विवक्षित मुख्य और अविवक्षित-गौण तो किया जा सकता है, परन्तु उसे अवस्तुभूतअपरमार्थ नहीं कहा जा सकता ।" उसका समान यह है कि इसमें सन्देह नहीं कि पात्रविशेषको लक्ष्यमें रखकर यह कारिका लिखी गई है, क्योंकि जो अध्यात्मवृत्त जीव होता है उसको दृष्टिमें असद्भूत और सद्भूत दोनों प्रकारका व्यवहार गौण रहता है, क्योंकि परमभावग्राही निश्चयको दृष्टिमें गौण कर तथा सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहारको दृष्टिमें मुख्य कर प्रवृत्ति करना यह तो मिध्यादृष्टिका लक्षण है, सम्यग्दृष्टिका नहीं । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाथा २ में स्वसमय (सम्यग्दृष्टि ) और परसमय (मिध्यादृष्टि ) का लक्षण करते हुए लिखा है कि जो दर्शन-ज्ञान चारित्र में स्थित है वह स्व-समय हूँ और जो पुद्गलकर्मप्रदेशों में स्थित है वह पर समय है। यह दृष्टिकी अपेक्षा कथन है ।"
आगे इसकी समीक्षा की जाती है ।
जैनागम में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालके भेदसे छह प्रकारकी वस्तुओं मानी गईं हैं । इनमेंसे प्रत्येक वस्तु एकदुसरो वस्तुसे भिन्नताको प्राप्त है। यहाँ तक कि अनन्त जीव परस्पर भिन्नताको प्राप्त हैं, अनन्त पुद्गल परस्पर भिन्नताको प्राप्त हैं और असंख्पात काल परस्पर भिन्नताको प्राप्त हैं । जीवोंमें यह विशेषता है कि वे अपने से भिन्न वस्तुओंको भी अपनेरूप या अपनी मान रहे हैं जो मिथ्या है। इस तरह समयसार गाया २ में आचार्य कुन्दकुन्दने यह बतला दिया है कि जो जीव परको अपना या अपने रूप मानता है यह मिथ्यादृष्टि है और जिस जीवने परको अपना या अपने रूप मानना छोड़कर दर्शन-ज्ञान-चारित्रको ही अपना या अपने रूप मान लिया है, वह समय दृष्टि है ।
इसी तरह कार्योत्पत्ति उपादान और निमित्त दो प्रकारके कारणोका योग मिलनेपर होती है। इन दोनों प्रकारके कारणों से उपादान तो कार्यरूप परिणत होने रूपसे कारण होता है और निर्मित उसमें सहायक होने रूपसे कारण होता है। जैनागमकी यही मान्यता है । अब यदि कोई जीव निमित्तकारणको उपादानकारणके सदृश कारण मानता है तो वह मिध्यादृष्टि है और वह भी मिथ्यादृष्टि है जो निमित्त कारणकी सहायता प्राप्त हुए बिना ही उपादानसे कार्योत्पत्ति मानता है तथा जो कार्योत्पत्तिमें उपादान