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जयपुर (लानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा कारण और निमिसकारण दोनोंके योगदानको उपर्युक्त प्रकारसे यथारूप (जैसा है येसा) मानने लगता है और कार्योत्पत्ति में उनकी उस रूपसे उपयोगिताको समझने लगता है वह सम्यग्दृष्टि है।
यहाँ इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि संयोग सम्बन्धके आधारपर सम्यग्दृष्टि जीव भी 'मह मेरा पुत्र है' 'यह मेरा मकान है' इत्यादि प्रकारके अपनेपनकी बुद्धि किया करता है । और इसे जैनागममें मिथ्यादुष्टि नहीं माना गया है। इसी प्रकार सम्पग्दृष्टि जीध घटोत्पतिमें कुम्भकारफे सहायक होनेके आधारपर 'कुम्भकारने घट बनाया ऐसा मानता है तो उसे भी जैनागममें मिथ्यावृष्टि नहीं माना गया है । अर्थात् तादात्म्य सम्बन्धको अपेक्षा जो बात मिथ्या है वह संयोग सम्बन्धको अपेक्षा सत्य हो जाती है । इसी प्रकार कार्यरूप परिणतिके रूपमे यदि निमित्तकारणताको मिथ्या कहा जाता है तो वही निमित्तकारणता कार्यम उपादानके प्रति सहायकपनेकी अपेक्षा सत्म भी मानी जाती है।
इस तरह प्रकृत वक्तव्यमें उत्तपक्षने जो यह लिखा है कि परमभावनाही निश्चयको दृष्टिमें गौणकर तथा तद्भूत व्यवहार और ससद्भुत व्यवहारको दृष्टि में मुख्यकर प्रवृत्ति करना यह तो मिथ्यादृष्टिका लक्षण है, मो उसका ऐमा लिखना जैनागमके विपरीत है, क्योंकि निश्चवदृष्टिको गौण और व्यवहार दृष्टिको मुख्य तो सभ्यग्दृष्टि भी कर सकता है। इसलिए, व्यवहारदृष्टिको निश्चवदृष्टि बना लेना ही मियादृष्टिका लक्षण है-ऐसा जानना चाहिए ।
आगे अपने मतकी पुष्टि के लिए उत्तरपक्षने वहींपर पण्डितप्रवर दौलतरामजीके 'हम तो कबहुँ म घर आये' इत्यादि भजन को भी उद्धृत किया है । परन्तु उससे उत्तरपक्षके दृष्टिकोणका समर्थन न होकर मेरे उपर्युक्त समीक्षात्मक दृष्टिकोणका ही समर्थन होता है । तत्त्वजिज्ञासुओंको इसपर ध्यान देना चाहिये । कथन ११ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने त च पृ० ८९-९० पर यह कथन किया है-"अपरपक्ष ने जो यन्त्र लिखा है कि "अतः इससे कार्यकारणको व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता है ।" हम इसे भी स्वीकार करते है, क्योंकि उपचरित और अनुपचारित दोनों दृष्टियोंको मिलाकर प्रमाणदृष्टिसे आगममें कार्य-कारणको जो व्यवस्था की गई है वह 'बाह्य और आभ्यन्तर उपाक्षिकी समग्रतामें प्रत्येक कार्य होता है यह प्रन्यगत स्वभाव है' इस व्यवस्थाको ध्यानमें रखकर ही की गई है। दोनोंकी समनतामें प्रत्येक कार्य होता है मह यथार्थ है, करूपना नहीं, किन्तु इनमेंसे आभ्यन्तर कारण अधार्थ है और यह यथार्थ क्यों है तथा बाह्य कारण अयथार्थ है और वह अयथार्थ क्यों है, यह विचार दूसरा है। इसे जो ठोक तरहसे जानकर वसी श्रद्धा करता है वह कार्य-कारणभावका यथार्थ ज्ञाता होता है, ऐसा यदि हम कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।"
आगे इसकी समीक्षा की जाती है ।
उत्तराशका यह कथन निर्विवाद होते हुए भी इसमें केवल इतना ही विवाद रह जाता है कि निमित्तकारणभूत बाह्य सामग्रीको पूर्व पक्ष इसलिए अयथार्थ कारण मानता है कि वह निमित्तभूत बाह्य सामग्री स्वयं कार्यरूप परिणत न होकर कार्यरूप परिणत होनेवाली उपादानभत अन्तरंग सामग्रीकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक मात्र हुआ करती है और उस निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको उत्तरपक्ष इसलिए अयथार्थ कारण मानता है कि वह निमित्तभूत बाद्य सामग्री कार्यरूप परिणत होनेवाली उपादानभूत अन्तरंग सामग्रीकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी नहीं हुआ करती है। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षकी परस्पर भिन्न हम