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प्रकाशकीय
स्व. श्रीमती लक्ष्मीबाई (पल्नी पं० वंशीधर शास्त्री) पारमार्थिक फण्ड, बोना-इटावासे "पानिया तत्समन और उराकी ग़मीना" भाग १ का प्रकाशन करते ए. मुझे परग हर्ष हो रहा है। यह ग्रन्थ इस फण्डसे प्रकादिति होनेवाला दूसरा ग्रन्थ है। इसके पूर्व इरा फण्डसे "जैन शासनमें निश्चय और व्यवहार'. ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है, जो अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्री पुरस्कृत है ।
"जन गासनमें निश्चय और व्यवहार" ग्रन्धके प्रकाशकीयमें यह विश्वास प्रगट किया गया था कि "फण्डये ग्रन्थ-प्रकाशनका यह क्रम सतत जारी रहेगा और संभवतः इसका दूसरा प्रकाशन 'सानिया तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा' होगा, जिसमें ४-५ वण्ड हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक प्रश्नवी तत्वचर्चा संबन्धी सामग्रीके साथ ही उसकी समीक्षा सम्बन्धी सामग्रीका उसमें प्रकाशन किया जायंगा।" इराकी क्रियात्मक परिणति प्रस्तुत ग्रन्थका प्रकाशन है, जो निश्चय ही कम हर्षका विषय नहीं है।
जैन शासन निश्चय और व्यवहार' तथा 'खानिया तत्त्वच की समीक्षा' ये दोनों ग्रन्थ सिद्धांताचार्य पं० वशीधरजी व्याकरणाचार्यकी कृतियां हैं। इनसे पूर्व पं० जीके महत्त्वपूर्ण 'जैन तत्त्व-मीमांसाकी मीमांसा' (भाग १) व 'जन दर्शनमें कार्यकारणभाव और कारक-व्यवस्था' ये दो अन्य स्त्र १० राजेन्द्रकुमारजी न्यावतीर्थ, मथुराने जन संस्कृति सेवक समाजसे प्रकाशित कराये थे ।
उक्त चारों अन्ध सोनगढ़-मान्यताओं के एकान्त मिथ्यापनको उजागर करनेके लिये लिखे गये है और मेरा विश्वास है कि ये ग्रन्थ इसको पूतिमें सफल सिद्ध होंगे।
सिद्धांताचार्य पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य हमारे पूज्य पिताश्री है। इन्होंन उक्त उद्देश्यकी पूर्ति के लिए हमारी पूज्या माता स्व० श्रीमती लक्ष्मीबाईको चिर-स्मृतिमें पारमार्थिक फण्डकी स्थापना की थी, जिसका आधार और संरचना निम्नांकित रूपमें उनके द्वारा स्वयं लेखबद्ध की गई थी।
"जबसे मैंने सोनगढ़ साहित्य और उसका अनुसरण करनेवाले साहित्यके विरुद्ध सैद्धान्तिक लेखनी चलाना प्रारम्भ किया तभीसे मेरे मस्तिष्कमें इस प्रकारका विकल्प चलता रहा कि यदि मेरे द्वारा निर्मित साहित्य के प्रकाशनको व्यवस्था कदाचित् किसी अन्य स्थलसे न हो सके तो उसके प्रकाशनके लिए एक फण्डका निर्माण किया जाये व उसका उपयोग उपर्युक्त कार्यके अतिरिक्त अन्य कल्याणकारी कार्योंमें भी आवश्यकतानुसार यदि सुविधा हो तो किया जावे, लेकिन मुख्य कार्यको दुर्लक्षित किसी भी हालतमें न किया जाने । ___मैंने ४ जुलाई सन् १९७४ से सामान्य रूपसे फण्ड-निर्माणके अनुकूल अपनी प्रवृत्तियां आरम्भ कर दी थी। इसी बीच २५ सायें भगवान् महावीर निवणि महोत्सवके उपलक्ष्यमें श्री वीरनिर्वाण भारती मेरठने विद्वानोंका सम्मान करमेकी योजना प्रारम्भ की, जिसके अन्तर्गत श्री १०८ उपाध्याय मुनि विद्यानन्दजी महाराजके तत्वाधानमें विद्वत्सम्मान-समारोहका एक आयोजन दिल्लीके विज्ञान-भबनमें दिनांक २५ अक्टूबर, १९७४ को किया गया था । इसमें अन्य १४ विद्वानों