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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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क्रिया तो नियमसे बन्धका कारण है। परन्त यदि कोई जीव उस अघरार पर उसके पगसे अनायास दब कर मरणको प्राप्त होता है तो जराका निमित्त शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको कदापि नहीं माना जा सकता है, प्रत्युत जीव के निमित्तसे होनेवाली पारीरकी क्रिया ही उसका निमित्त होती है, ऐसा मानना ही युक्तिसंगत है। इसमें निणीत होता है कि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियाजन्य प्राणिवधका अपराध जीब नहीं है, इसलिये उससे जीवको कर्मबन्ध नहीं होता। इतना अवश्य है कि गमनक्रियाजन्य वन्य जीवो उस समय भी होता है, क्योंकि वह गमनक्रिया शरीरके सहयोगसे होनेवालो जीवको ही किया है।
(६) उत्तरपक्षने त० ५० पृ० ७८ पर निर्दिष्ट अपने वक्तव्यमें जो यह लिया है कि "जो उपादानकी सम्हाल करता है उसके लिए उपादान के अनुसार कार्यकालमें निमित्त अवश्य ही मिलते है। ऐसा नहीं है कि उपादान अपना कार्य करनेके सम्मख हो उसे कार्य में अनुकल ऐसे निमित्त न मिलें। इसके संबंध मेरी समीक्षा निम्न प्रकार है :
(क) यहीं पर "जो उपादानकी सम्हाल करता है" इस कथनसे उत्तरपक्षका क्या अभिप्राय है। यह स्पष्ट नहीं होता । मेरा तो यह बह्नना है कि ममक्ष जीवका भोक्ष प्राप्त करने के लिए कर्मबन्धकी कारणभूत पूर्वोक्त मानसिक, वाचनिक और काचिक संसारिक प्रवृत्तियोंमें मनोगप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिकप पुष्पार्थ करना ही अपने उपादानकी सम्हाल करता है, क्योंकि ऐसा करने से ही उस मुमुक्ष जीवमें मोक्षके कारणभूत कर्मसंबर और कर्मनिर्जरण होते हैं । यदि उत्तरपक्ष भी उपादानकी सम्हाल करनेका यही अभिप्राय मान्य करता है तो प्रकृत विषयमें पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंक मध्य विवाद नहीं रह जाता है, कारण कि इस तरह पूर्वपक्षकी पूर्वमें स्पष्ट की गई शारीरके सहयोगरा होनेवाली जीवक्री क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होने की मान्यता निविवाद हो जाती है।
(ख) उत्तरपक्षक "जो उपादानको सम्हाल करता है" इत्यादि कथनके आधार पर उसके सामने यह विकल्प भी अनायास ही खड़ा हो जाता है कि जो जीव अपने उपादानको सम्हाल नहीं कर रहा है उसको कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्त मिलते ही नहीं हैं या प्रतिकूल निमित्त मिलते हैं ? यदि उसको निमित्त मिलते ही नहीं है-ऐसा माना जाये तो उस समय उपादानको क्या स्थिति रहती है। यह बात स्पष्ट करनेकी समस्या उत्तरपक्ष के सामने खड़ी हो जाती है और यदि प्रतिकूस निमित्त मिलते हैं--ऐसा माना जाए तो उसके सामने उसकी मान्यताके विरुद्ध यह बात प्रसक्त होती है कि उस समय उन प्रतिकूल निमित्तोंके योगसे उपादानमें प्रतिकूल कार्य भी नियमसे होना चाहिए जिसका निराकरण करना उत्तरपेक्षके वशकी बात नहीं है।
(ग) जहाँ तक उपादामकी सम्हाल करनेकी बात है-यह चेतन होने के कारण जीवका ही कार्य हो सकता है, अचेतन होने के कारण अजीवका कार्य कदापि नहीं हो सकता। परन्तु कार्योत्पत्ति जीव और अजीच दोनों में होती है, इसलिये जीवके लिए अपने उपादानकी सम्हाल करनेका क्या प्रयोजन रह जाता है ? यदि कहा जाए कि जीवको अपने उपादानकी सम्हाल करनेका प्रयोजन यह है कि कि ऐसा करनेसे उसका अभिलषित कार्य सम्पन्न हो सकता है, अन्यथा अभिलषित कार्य के प्रतिकूल भी कार्य सम्पन्न हो सकता है, तो इसके पूर्व उत्तरपक्षको यह मान्य करना आवश्यक है कि निमित्त उपादानकी कार्योत्पत्तिम कार्यकारी ही होता है, अकिंचित्कर नहीं ।
(घ) उत्तरपक्षका कहना है कि "जो उपादानको सम्हाल करता है उसके लिए उपादानके अनुसार