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___ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा (३) पूर्वपक्षको मान्यतामें भी प्रत्यकर्मका सदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें उत्तरपक्षकी मान्यताके समान मिगिन मय होता है जमण मम्य की आत्मा ही होता है. यह भी उत्तरपक्ष जामता है। दोनोंमें मतभेद यही है कि जहाँ उत्तरपक्ष द्रष्यवर्मके उदयको उक्त कार्यके प्रति उस कार्यरूप परिणत न होने और उसमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिचिकर निमित्त कारण मानता है वहां पूर्वपक्ष उसे उस कार्यके प्रति उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधारपर अकिचित्कर और उसमें सहायक होनेके आधारपर किंचित्कर कार्यकारी निमित्तकारण मानता है ।
पूर्वपक्षके प्रश्नका आशय यह रहा है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिम्रमणमें कार्यकारी निमित्त कारण होता है या वह वहोपर अकिंचित्कर रूपमें ही निमित्त कारण होता है। उसके इस प्रश्नका आशय उसे वहाँ मुख्यका मानने वा न माननेके रूपमें नह। रहा है, क्योंकि दोनों ही पक्ष उसे पोपर उपचरितकर्ता ही मानते हैं । यहाँ भी दोनों पक्षोंके मध्य केवल यह मतभेद है कि उत्तरपक्ष उस उपचरित कर्तृत्वको कल्पनारोपित या कवनमात्र मानता है जबकि पूर्वपक्ष उस उपचरितकर्तृत्वको उपचरित रूपमें वास्तविक ही मानता है, कल्पनारोपित या कथनमात्र नहीं मानता।
इस विवेचनके अनुसार उत्तरपक्षको पूर्वपक्षके प्रश्नपर इस रूपमें ही विचार करना था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी बारमाके बिकारभाव और चतुर्गति भ्रमणमें सहायक रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण होता है या यह वहाँपर सहायक न होने रूपसे अकिंचित्कर रूपमें ही निमित्त कारण होता है। उत्तरपक्षको इस अवसर पर व्यवहारमय और निदचयनय तथा उपचरितकर्तुत्व और मुख्य कर्तृत्व जैसे अप्रकृत और अनावश्यक कथनों में न तो स्वयं उलझना था और न ही पूर्वपक्षको उलझाना था। यह तो दोनोंको शक्तिका अपव्यय करना तथा बगलें साफना है।
द्रव्यकर्मोदयको प्रकृत कार्यके प्रति निमित्त मानना छलपूर्ण है
उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "स्पष्ट है कि मूल प्रश्नका उत्तर लिखते समय जो हम यह सिद्ध कर आये है कि संसारी भात्माके विकार भाव और चतुर्मतिभ्रमणमें प्रत्यकर्मका उदय निमित्त मात्र है, उसका मुख्यकर्ता तो स्वयं आत्मा ही है ।"' सो उसका यह लिखना छलपूर्ण है, क्योंकि आगे चलकर उसने इसके विरुद्ध भी लिखा है कि "जिस जिस समय जीव क्रोधादि भावरूपसे गरिणत होता है उस उस समय क्रोधादि द्रव्यकर्मके उदयकी कालप्रत्यासप्ति होती है। इससे उसने वही अभिप्राय फलित करना चाहा है कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणके अवसर पर क्रोधादि द्रव्यकर्मका उदय विद्यमान तो रहता है, परन्तु वह उसमें अकिचिकर ही बना रहता है निमित्तरूपसे कार्यकारी नहीं होता। उत्तर प्रश्नके आशयसे विपरीत
उत्तरपक्ष उपर्युक्त द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें सहकारी न होने रूपसे अकिंचित्कर मानता है और पूर्वपक्ष उसे वहाँ सहकारी रूपसे कार्यकारी मानता है। दोनों पक्षोंके इस मतभेदको समाप्त करने के उद्देश्यसे ही प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया गया था । परन्तु उत्तरपसने १. देखो, त. च० पृ० ३३ । २. देखो, वही, ३३ ।