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शंका-समाधान १ की समीक्षा
प्रश्नके आशयको दुर्लक्षित करके उन बातों पर अपने विचार व्यक्त किये है जिनका प्रश्नके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । इससे प्रकट है कि उत्तरपक्षका उत्तर प्रश्नके आशयसे विपरीत है । निमित्तको अकिंचित्कर सिद्ध करनेका प्रयत्न अयुक्त
उत्तरपक्षने प्रकृत प्रश्न पर विचार करते हुए निमित्तको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक न होने कपसे अकिंचित्कर सिद्ध करनेके लिए जो यह लिखा है कि "संयोगरूप भूमिकामें एक द्रव्यके विकारपरिणतिके करने पर अन्य द्रव्य विवक्षित पर्यायके द्वारा उसमें निमित्त होता है। परन्तु उसका यह का उदासीन निमित्तमें घटित होनेपर भी कार्यके प्रति उसकी अकिषिरकरताको सिद्ध करनेमें असमर्थ है, क्योंकि उदासीन निमित्त भी पंचास्तिकाय गाथा ८० और १४ के अनुसार उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध होता है। हम पूर्वमें स्पष्ट भी कर चुके है कि जब रेलगाड़ी चलती है तो वह रेलपटरीपर ही चलती है। इसलिये यदि इस पटरीको रेलगाड़ीकी गतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी न माना जाम-उसे वहाँ उस रूप में अकिंचित्कार ही माना जाता उसको दुर्मिक विधाने, उसने मजबूती
और सुरक्षाका ध्यान रखने और इसके लिए धन और श्रमका उपयोग करने आदि व्यवस्थाओंकी निरर्थकता सिद्ध हो जायेगी तथा रेलपटरोका अवलम्बन लिये बिना हो रेलगाडीके चलनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। इतना ही नही, रेलपटरीको तोड़फोड़ हो जाने पर भी रेल के गिर पड़ने व जमीनमें फंसने आदिकी समस्यायें अपने आप ही समाप्त हो जानेगी। उतरपक्षको उदासोन निमित्तकी अकिचित्करता सिद्ध करनेसे पूर्व इन बातोपर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
"संयोगरूप' भूमिकामे' इत्यादि उपर्युक्त कथन प्रेरक निमिसमें तो सर्वथा घटित नहीं होता, क्योंकि प्रेरक निमित्तका कार्य उपादान (कार्यरूप परिणव होनेको योग्यता विशिष्ट वस्तु) को कार्यरूप परिणत होने के लिये सक्षम बनाने का है या वों कहिये कि उसे कार्यरूप परिणत होनेके लिये प्रेरित करनेका है। अर्थात वस्तू में उपादानशक्ति विद्यमान रहने पर भी जब तक प्रेरक निमित्त उसे कार्यरूप परिणत होने के लिये सक्षम नहीं बनायेगा, तब तक उसको विवक्षित कार्यरूप परिणतिका होना असम्भव है।
इस विषेचनसे स्पष्ट है कि कार्योत्पत्तिमें उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त तीनों अपने अपने ढंगमे कार्यकारी हैं। उदाहरणार्थ-'जसे शिष्य अध्यापकसे प्रदीपले प्रकाशमें पढ़ता है।" यहां उपादान कारणभूत शिण्य ही पाठनक्रियारूप परिणत होता है। उसकी इस पठनक्रियामें प्रेरणा देनेवाला अध्यापक है, अतः उसे प्रेरक निमित्त कहा जाता है। पढ़नेवाला शिष्य भी हो और पढ़ानेवाला अध्यापक भी हो, परन्तु यदि वहाँ पर उदासीन रूपसे सहायता करनेवाले प्रदीपका प्रकाश न हो, तो न अध्यापक पढ़ा सकता है और न शिष्म पड़ सकता है। अतः दीपकका प्रकाश भी अप्रेरक ( उदासीन ) रूपसे निमित्त ( सहायक ) है । इसी प्रकार समस्त वस्तुओंको कार्योत्पत्ति में भी उपादान, प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त तीनों ही अपने अपने ढंगसे कार्यकारी कारण सिद्ध होते हैं। तीनोभेसे कोई भी कारण दही किंचित्कर नहीं है । इन तीनों कारणोंका सद्भाव रहते हुए भी यवि बाधक कारणका अभाव न हो तो कार्योत्पत्ति नहीं हो सकती है। अतएव बाधकामाव भी कार्योत्पत्ति में सहायक है । उसे भावान्तर स्वरूप माननेपर उसका दोनों निमित्तोंमें यथायोग्य समावेश हो जाता है।
१. देखो, त०१० पु. ३३ ।