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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा ___ यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि "शिष्य पढ़ता है," "अध्यापक पढ़ाता है" और "दीपक पढ़ाता है" जैसे वचनोंका भी प्रयोग पुथक्-पृथक् रूपमें देखनेमें आता है। किन्तु ऐसे वचन-प्रयोगोंमें मुख्यता और गौणताकी विवक्षा होती है। अर्थात् "शिष्य पढ़ता है" इस वचन-प्रयोगमें उपादानवी मुख्यता और प्रेरक एवं उदासीन निमित्तोंकी गौणता है। "अध्यापक पढ़ाता है" इस वचन प्रयोगमें प्रेरक निमित्तकी मुख्यता व उपादान व उदासीन निमित्त दोनोंकी गौणता है। इसी तरह "दीपक पढ़ाता है" इम बचनप्रयोगमें उदासीन निमित्तको प्रधानता है और उपादान तथा प्रेरक निमित्तकी गौणता है। परन्तु यह तथ्य है कि कार्योत्पत्ति में तीनों ही कार्यकारी होते हैं । अतः तीनों से किसीको भी अकिंचित्कार नहीं कहा जा सकता है।
इन तीनोंके लक्षण भी पथक-पृथक हैं। जैसे उपादान वह है जो कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता अपने अन्दर रखता हो, प्रेरक निमित्त वह है जिसके साथ कार्यको अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ होती है और सदासीन निमित्त यह है जिसको कार्यके साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियाँ होती हैं। इस प्रकार लक्षणभेदके आधारपर तीनों कारण पृथक्-पृथक सिद्ध होते है और कार्योत्पत्ति, अपनी निश्चित सार्थकता प्रकट करते है। उपादान और दोनों प्रेरक और उदासीन निमित्तोंमें जो भेद है, वह यह है कि उपादान कार्यरूप परिणत होता है व दोनों निमित्त उसमें सहायक भाव होने हैं। प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका भो भेद इस आधारपर है कि प्रेरक निमित्त बलसे कार्य मार्गे-पीछे कभी भी किया जा सकता है । परन्तु उदामीन निमित्त के बलपर कार्यको आगे-पीछे नहीं किया जा सकता फिर भी उसके सहयोग के बिना कार्यको उत्पत्ति नहीं होती। इससे उसको भी कार्योत्पत्तिमें अनिवार्यताको झुठलाया नहीं जा सकता । क्या जयधवलाका बचन बाह्य कारणका निषेधक है?
पूर्वपक्षने अपना अभिप्राय प्रकट करते हुए कहा था कि यदि क्रोधादि विकारोभावोंको द्रम्पकमोदयके बिना मान लिया जादे, तो उपयोगके समान में भी जीवके स्वभाव भाव हो जायेंगे और ऐसा माननेपर उन विकारी भावोंका नाश न होनेसे मोक्षके अभावका प्रसंग आ जायेगा ।' उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके इस कथनको उद्धृत करके उसके समाधान में लिखा है कि "क्रोधादि विकारी भावोंको जीव स्वयं करता है, इसलिए के निश्चयनयसे परनिरपेक्ष ही होते हैं, इसमें सन्देह नहीं, कारण कि एक ट्रम्पके स्वचतुष्टयमें अन्य द्रव्यके स्वचतुष्टयका अत्यन्त अभाव है।" अपने इस लेखकी पुष्टिके लिए उसने जयधवला पुस्तक ७, पृ० ११७ से "बज्झकारणणिरवेक्खो वत्थुपरिणामो" इस बच्चनको उद्धृत किया है तथा उसका अर्थ भी 'प्रत्येक बस्सुका परिणमन बाह्यकारण निरपेक्ष होता है।" दिया है ।
हमें आश्चर्य है कि उत्तरपक्ष प्रश्नकर्ताक मूल प्रश्नका समाधान न करके मात्र अपने अभिप्रायको दोहराता है और उसका जरा भी पोषक कोई बचन मिलनेगर उसे प्रस्तुत कर देता है। न उसकी गहराईको देखता है, न सन्दर्भको और न वक्ताको सन्दर्भित विवक्षाको । वस्तुको स्यवस्था उभयनयसे है । जब एकनयसे वक्ता कथन करता है तो वहीं दूसरा नय अविवक्षित होता है। स्याद्वादी वस्ताको प्ररूपणा इसी प्रकार होती है।
१. त च० पृ१०१ २. ३, वही, पृ० ३३ ।