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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा दृष्टिगे जब विचार किया जाता है तो निमित्त और उपादान दोनों ही कारण स्वपरप्रत्ययरूप कार्यमें समानरूपसे ही अपने-अपने स्वभावानुसार अपने अपने ढंगसे सार्थक या उपयोगी हुआ करते है। ऐसा नहीं है कि उक्त स्वपरप्रत्ययरूप कार्यको केवल :- पादान ही सम्पन्न कर लेता है और निमित्त बंटा-बैठा केवल हाजिरी ही दिया करता है । इस विषममें आचार्य विद्यानन्दिके निम्नलिखित वचनोंपर भी ध्यान देना जरूरी है
गुनि सुमति ट्रम्या देशात देव, केयूरादिसंस्थानपर्यायार्थादेशाच्चासदिति तथा परिणमनशक्तिलक्षणायाः प्रतिविशिष्टान्त:सामग्र्याः, सुवर्णकारकव्यापारादिलक्षणायाश्च बहिःसामयाः सन्निपाते केयूरादिसंस्थानात्मनोत्पद्यते ।
–अष्टसहस्री पृ० १५० अर्थ- सुवर्णत्वादि द्रव्यांश रूपमें सत् और केयूरादिके आकारभूत पर्यायांशरूपमें असत् सुवर्ण द्रव्य हो केयूरादिके आकारोंसे परिणत होने की शक्तिहप अन्तरंग सामग्री और स्वर्णकारके व्यापार आदिरूप बहिरंग सामग्रीका सन्निपात हो जानेपर केयू रादिके आकाररूपसे उत्पन्न होता है ।। . इसके साथ ही इस बातपर भी ध्यान देना आवश्यक है कि उपादान कारणको समानता रहते हुए भी निमित्तकारणोंकी विचित्रताके अवलम्बनसे कार्यों में भी विचित्रता देखी जाती है। स्वामी समन्तभद्रने कहा भी हैकामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः ।।१९।। -देवागमस्तोत्र
___-अष्टसहस्री पृष्ठ २६७ मर्थ-पौद्गलिक कर्मकि बन्धके अनुसार ही जीवोंमें कामादिको विविश्वरूपता हुआ करती है । इस विषयमें प्रवचनसार गाथा २५५ की टीकाकी निम्नलिखित पंक्तियां भी द्रष्टव्य है
यथैकेषामपि बीजानां भूमिवपरीत्यान्निष्पत्तिवपरीत्यं तथकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रत्रपरीत्यात्फलवैपरीत्यं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात् ।
अर्थ-जिस प्रकार भूमिकी विपरीततासे एक ही प्रकारके श्रीजोंमें कार्योत्पत्तिको विपरीतता देखो जाती है उसी प्रकार एक ही तरहका शुभोपयोग भी पात्रोंकी विपरीतताके कारण फलमें विपरीतता ला देता है, क्योंकि कारणविशेषसे कार्य में विशेषताका होना अवश्यंभावी है ।
इन प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि निमित्तकारण उपादानकी कार्यपरिणतिमें केवल हाजिरी ही नहीं दिया करता है, बल्कि अपने ढंगसे उपादानका अनुरंजन किया करता है।
हमने अपनी द्वितीय प्रतिशंकामें भी ऐसे बहुतसे आगम प्रमाण उपस्थित किये हैं जिनसे सिद्ध होप्ता है कि निमिसोंका कार्य उपादानको कार्यके प्रति सहायता पहुँचाना ही रहा करता है । इसलिए जिस प्रकार उपादानकारण अपने रूपमें याने कार्य के आश्रयरूपमें वास्तविक है, यथार्थ है और सद्भूत है उसी प्रकार निमित्तकारण भी अपने रूपमें याने फार्यके प्रति उपादान सहकारीरूपमें वास्तविक है, यथार्थ है और सद्भूत है।
आपने अपने उत्तरमें उदासीन और प्रेरक ऐसे दो भेद स्वीकार कर लिए, यह तो प्रसन्नताकी बात है, परन्तु आप इन दोनों के कार्यभेदको अभी तक माननेके लिए तैयार नहीं हैं। ऐसी स्थिति में आपकी इस मेदद्वयकी मान्यताका कोई अर्थ ही नहीं रह जाला है। आप लिखते है कि 'पंचास्तिकाय गाथा ८८ में