________________
जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
। अर्थ-हे जीव ! यह आस्मा पंगुकै समान है । आप न कहीं जाता है, न आता है । तीन लोकमें इस जीवको कर्म ही ले जाता है, कर्म ही ले आता है ।।१-६६।।
कम्मई दिव-धण-चिक्कणई गवई वज्जसमाई।
पाण-वियक्खणु जीवदा सम्पाहि पाहि ना ॥2.13.2: प. अर्थ-वे ज्ञानावरण आदि कर्म बलबान हैं, बहुत हैं, जिनवा विनाश करना अशक्य है; इसलिये चिकने है, भारी हैं और इनके समान अभेस है, इस ज्ञानादि गुणसे चतुर जीवको खोटे मार्ग पटकते हैं ।।
. कम्माई बलियाई वलिओ कम्माद त्यि कोइ जगे।
सव्व बलाई कम्म मलेदि हत्थीव णलिणि वणं ॥१६२१॥-मूलाराधना अर्थ-जगतमें कर्म ही अतिशय बलवान् है, उससे दूसरा कोई भी बलवान् नहीं है। जैसे हाथी कमलवनका नाश करता है, वैसे ही यह बलवान् कर्म भी सर्व बन्ध विद्या दृश्य शरीर परिवार सामर्थ्य इत्यादिका नाश करता है ।। १६२१॥
का वि अउव्या दीसदि पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती।
केवलणाणसहावे विणासिदो जाइ जीवस्स ।।२११॥-स्वा० का० अ० अर्थ-पुद्गल द्रव्यको कोई ऐसी अपूर्व शाक्ति है जो जीधक केवलज्ञानस्वभावको भी नष्ट कर देती है ।
प्रश्न नं० ५ के द्वितीय उत्तरमें स्वा० का० अ० गाथा ३१९ उद्धत करते हुए आपने स्वय स्वीकार किया है कि जीवका उपकार या अपकार शुभाशुभ कर्म करते हैं। लथा प्रपन नं० १६ के प्रथम सत्तरमें भी आपने यह स्वीकार किया है कि जीवमें बहुतसे धर्म ऐसे हैं जो आगन्तुक है और जो संसारकी विवक्षित भूमिका तक आत्मा दृष्टिगोचर होते है, उसके बाद उसमें उपलब्ध नहीं होते।
इन आगम प्रमाणोंसे सिद्ध होता है कि वास्तव में विकारी भाव व्यकर्मोदयके अनुरूप होते हैं। समयसार माथा ८९ व २७८-२७९ में स्फटिक मणिका दृष्टान्त देकर यह सिद्ध किया गया है कि यद्यपि जीवका परिणमन स्वभाव है तथापि उसके भाव कर्मोदय द्वारा किये जाते है, इसीलिये ५० से ५६ तक की गाथाबों में यह बतलाया है कि ये रागादिक भाव पौद्गलिक है और व्यवहार नय से जीवके हैं। ममयसार गाथा ६८ की टीकामें यह कहा गया है कि जिस प्रकार जोसे जो उत्पन्न होता है उसी प्रकार रागादि पुद्गल कर्मोसे रागादि उत्पन्न होते हैं, इसी कारण निश्चय नयसे रागादिक (भाव) पोद्गलिक हैं। समयसार गाथा ११३११५ में कहा है कि जिस प्रकार उपयोग जीवसे अनन्य है उस प्रकार क्रोध जीवसे अनन्य नहीं है।
___ अन्य कारणों और कर्मोदयरूप कारणोंमें मौलिक अन्तर है, क्योंकि बाह्य सामग्री और अन्तरंगकी योग्यता मिलने पर कार्य होता है । किन्तु घातिया वर्मोदय के साथ ऐसी बात नहीं है, वह तो अन्तरंग योग्यता का सूचक है। जैसा कि स्वयं श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी ने कर्मग्रंथ पुस्तक ६ की प्रस्तावना पृ० ४४ पर लिखा है--
अन्तरंगमें बैसी योग्यताके अभाव में बाह्म सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती है। जिस योगीके राग भाव नष्ट हो गये हैं, उसके सामने प्रबल रागकी सामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पंदा नहीं होता। इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरंग योग्यताके बिना बाह्य सामग्रीका मूल्य नहीं है । यद्यपि कर्मके विषयमें भो ऐसा ही कहा जा सकता है पर कर्म और बाह्य सामग्री इनमें मोलिक अन्तर है।