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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इस प्रकार उक्त कथन से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीय कर्मके उदयको आलम्बन ( निमित्त ) कर जो गुणस्थान या रागादि होते हैं वे अशुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा जीव हो हैं । यहाँ जो उन्हें जीव होनेका निषेध कर अचेतन कहा है वह शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा ही कहा है। तात्पर्य यह है कि (१) त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव आत्मा के अवलम्बनसे उत्पन्न हुई मात्मानुभूति में गुणस्थानभाव या रागादिभावका प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता । ( २ ) थे पुद्गलादि परद्रव्यका अवलम्बन करनेसे उत्पन्न होने के कारण शुद्ध चैतन्य प्रकाश स्वरूप न होकर चिद्विकार स्वरूप है अतएव अचेतन हैं तथा (३) उनकी जीवके साथ कालिक व्याप्ति नहीं पाई जाती, इसलिए शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा वे जीव नहीं हैं, अतएव पौग लिक हैं । ऐसा अध्यात्म परमागममें कहा गया है। यह जीव अनादि कालसे स्वको भूलकर परका अवलम्बन करता आ रहा है और परके अवलम्बन से उत्पन्न चिह्निकारोंमें उपादेय वृद्धि करता जा रहा है, इनमें हेय बुद्धिकर उनसे विरत करना उक्त कथन प्रयोजन है। यही कारण है कि कर्ता-कर्म अधिकार में रागादि भावों का कर्ता स्वतन्त्रपने स्वयं जीव ही है यह बतलाकर भी जीवाजीवाधिकार में परका अबलम्बन करनेसे [य] होनेके कारण उनमें परबुद्धि कराई गई है । आशा है अपर पक्ष समयसार गाया ६८ की टोकासे यही तात्पर्य ग्रहण करेगा, न कि यह कि पुद्गल स्वयं स्वतन्त्रतया आप कर्ता होकर उन गुणस्थान या रागादिको करता है, इसलिए यहाँ उन्हें पौद्गलिक कहा गया है । समयसार गाथा ११३ ११६ में भी यही आशय व्यक्त किया गया है। यदि अपर पक्ष निमित्तनैमिलिकभाव और कर्ता कर्मभाव में निहित अभिप्रायको हृदयङ्गम करनेका प्रयत्न करे तो उसे वस्तुस्थितिको समझने में देर न लगे ।
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३. फर्मोदय जीवको अन्तरंग योग्यताका सूचक है, जीवभावका कर्ता नहीं
आगे अपर पक्षने 'अन्य कारणों और कर्मोदय रूप कारणोंमें मौलिक अन्तर है, क्योंकि बाह्य सामग्री और अन्तरगकी योग्यता मिलने पर कार्य होता है। किन्तु घातिया कर्मोदयके साथ ऐसी बात नहीं है, यह तो अन्तरंग योग्यताका सूचक हैं | यह वचन लिखकर अपने इस वक्त की पुष्टि में अपनी (पं० फूलचन्द्र शास्त्रीकी) कर्मग्रंथ पु० ६ की प्रस्तावना पु० ४४ का कुछ अंश उद्धृत किया है ।
हमें इस बातकी प्रसन्नता है कि अपर पक्षने अपने उक्त कथन द्वारा घातिया कर्मोदयको जीवकी अन्तरंग योग्यताका सूचक स्वीकार कर लिया है। इससे यह सुतरां फलित हो जाता है कि संसारी जीन कर्म और जीवके अन्योन्यावगाहरूप संयोग कालमें स्वयं कर्ता होकर अपने अज्ञानादिरूप कार्यको करता है और कर्मोदय कर्त्ता न होकर मात्र उसका सूचक होता है । इसीको जीवके अज्ञानादि भावोंमें कर्मोदयकी निमित्तता कही गई है। हमारे जिस वचनको यहाँ प्रमाणरूपमें उपस्थित किया गया है उसका भी यही आशय है ।
किन्तु अपर पक्षने हमारे उक्त वचनों को उद्धृत करते हुए 'अतः कर्मका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती ।' इसके बाद उक्त उल्लेखके इस अनको तो छोड़ दिया है.
'फिर भी अन्तरंग में योग्यता के रहते हुए बाह्य सामग्रीके मिलनेपर न्यूनाधिक प्रमाण में कार्य तो होता ही है इसलिए निमित्तोंकी परिगणनामें बाह्य सामग्री की भी गिनती हो जाती है । पर यह परम्परा निमित्त है, इसलिए इसकी परिगणना नोकर्मके स्थानमें की गई हैं ।'
और इसके स्थान में हमारे वक्तव्य के रूप में अपने इस वनको सम्मिलित कर दिया है