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शंका १ और उसका समाधान
कारण है कि मोक्षमार्गकी दृष्टिसे सभी प्रकारके व्यवहारको गोणकर एकमात्र निश्चमस्वरूप ज्ञायक आत्माके अवलम्बन करनेका उपदेश दिया गया है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयसार बालशमें कहा भी है
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनस्तन्मन्ये व्यवहार एक निखिलोऽप्यन्याश्रितस्त्याजितः । सम्यक् निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य कि
शुखज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ।।१३।। सर्व वस्तुओंमें जो अध्यवसान होते हैं वे सब जिनेन्द्र देवने पूर्वोक्त रीतिसे त्यागने योग्य कहे है, इसलिए हम यह मानते हैं कि जिनेन्द्रदेव ने अन्यके आश्रयसे होनेवाले समस्त व्यवहार छुड़ाया है । तब फिर, ये सत्पुरुष एक सम्यक निश्चयको ही निचलतया अङ्गीकार करके शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप निज महिमामे स्थिरता क्यों धारण नहीं करते?
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह का हो जाता हैक वाला समादिको उत्पाड तया पुदगलका आलम्बन करने से ही होती है, स्वभावका आलम्बन करनेसे नहीं होती, इसलिए तो उन्हें अध्यात्ममें पौद्गलिक कहा गया है। पुद्गल आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है या वे पुद्गलकी पर्याय है, इसलिए उन्हें पौद्गलिक नहीं कहा गया है । इस अपेक्षा विचार करनेपर तो जीव आप अपरानी होकर उन्हें उत्पन्न करता है और आप सन्मय होकर मोह, राग, द्वेष आदिरूप परिणमता है, इसलिए चिडिकार ही हैं । फिर भी ज्ञायक स्वभाव आत्माके अवलम्बन वारा उत्पन्न हुई आरमानुभूतिमें उनका प्रकाधा नहीं होता, इसलिए उससे भिन्न होने के कारण व्यवहारनयसे उन्हें जीवका कहा गया है। इस प्रकार समयसारकी उक्त गाथाओंमें वर्णादिके समान रागादिको क्यों तो पौद्गलिक कहा गया है और क्यों चे व्यवहारनयसे जीयके कहे गये है इसका संक्षेपमें विचार किया।
२. समयसार गाया ६८ को टीकाका आशय अब समयसार गाथा ६८ की टीकापर विचार करते हैं । इसमें 'कारणके अनुसार कार्य होता है । जैसे जीपूर्वक उत्पन्न हुए जो जौ ही हैं ।' इस न्यायके अनुसार गुणस्थान या रागादि भावोंको पौद्गलिक सिद्ध किया गया है । इसपरसे अपर पक्ष निश्चयनयसे उन्हें पोद्गलिक स्वीकार करता है । किन्तु अपर पक्ष मदि पुद्गल आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है, इसलिए वे निद चयनमसे पोद्गलिक है मा पुद्गलके सभान रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले होने के कारण निश्चयनयसे ये पौद्गलिक हैं ऐसा मानता हो तो उसका दोनों प्रकारका मानना सर्वथा आगमविरुद्ध है, क्योंकि परके अवलम्बनस उत्पन्न हुए वे जीवके ही चिद्विकार हैं और जीवने आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न किया है । अतएव अशुद्ध पर्यायाथिकनयसे वे जीव ही है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन उक्त गाथाकी टीका लिखते हैं
यद्यप्यशुद्धनिश्चयेन चेतनानि तथापि शुद्धनिश्चयेन नित्यं सर्वकालमचेतनानि । अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्यकर्मापेक्षयाभ्यन्तररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव।।
गुणस्थान यद्यपि अशुद्ध निश्चयनयसे चेतन हैं तथापि शुद्ध निश्चयनयसे नित्य-सर्वकाल अचेतन है । द्रव्पकर्मकी अपेक्षा आभ्यन्तर रागादिक चेतन है ऐसा मानकर यद्यपि अनुन निश्चय वास्तवमै निश्चम संज्ञाको प्राप्त होता है तथापि शुद्ध निश्चयकी अपेक्षा वह व्यवहार ही है ।