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शंका २ और उसका समाधान है उसी प्रकार यदि बाह्य सामग्रीमें भी कारणताको सद्भूत माना जाय तो पुरुषकी मोक्षविधि नहीं बन सकती यह सक्त कारिकाका आशय है।
अपर पक्ष ने इसो प्रसंगमें 'यद्वस्तु बाह्यं' इत्यादि कारिकाका उल्लेख कर अपनी दृष्टिसे उसका अर्थ दिया है । किन्तु वह ठीक नहीं, क्योंकि उसका अर्थ करते समय एक तो 'अभ्यन्तरमूलहेतोः' पदको 'गुणदोषसूते:' का विशेषण नहीं बनाकर 'अध्यात्मवृत्तस्य अभ्यन्तरमूलहेतोः सत् अङ्गभूतम्' ऐसा अन्धय कर उसका अर्थ किया है। दूसरे 'अङ्गभूतम् पदका अर्थ प्रकृतमें 'गौण' है । किन्तु यह अर्थ न कर उसका अर्थ करते समय साभिप्राय उस पदको वैसा ही रख दिया है । तीसरे चौथे चरणमें आये हुए 'अलम्' पदको सर्वथा उपेक्षा करके उसका ऐसा अर्थ किया है जिससे पूरी कारिफासे ध्वनित होनेवाला अभिप्राय ही मटियामेट हो गया है।
उसका सही अर्थ इस प्रकार है-अभ्यन्तर बस्तु मूल हेतु है जिसका ऐसे गुण-दोषको उत्पतिमें जो बाह्य वस्तु निमित्त है वह अध्यात्मवृत्त अर्थात् मोक्ष-मार्गीके लिए गौण है, क्योंकि उसके लिए अभ्यन्तर कारण ही पर्याप्त है।
इस कारिका आया हुआ 'अपि' पद 'एव' अर्थको सूचित करता है।
अपर पक्षने उक्त कारिकाका अपने अभिप्रायसे अर्थ करनेके बाद जो यह लिखा है कि 'फिर यह पात्रकी विशेषताको लक्ष्य में रखकर कथन किया गया है, अतः इससे काय-कारणको व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता। पात्रकी विशेषताको दृष्टिमें रखकर किसी कयनको विवक्षित-मुख्य और अविवक्षित-गौण तो किया जा सकता है, परन्तु उसे अवस्तु भूत-अपरमार्थ नहीं कहा जा सकता।' उसका समाधान यह है कि इसमें सन्देह नहीं कि पात्र विशेषको लक्ष्यमें रखकर यह कारिका लिखी गई है, क्योंकि जो अध्यात्मवृत्त जीव होता है उसकी दृष्टिमें असद्भूत और सदभूत दोनों प्रकारका व्यवहार गौण रहता है, क्योंकि परम भावग्राही निश्चयको दृष्टि में गोण कर तथा सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहारको दृष्टिमें मुख्यकर प्रवृत्ति करना यह तो मिथ्यादृष्टिका लक्षण है, सम्यग्दृष्टिका नहीं । यही कारण है कि भाचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गावा २ में स्वसमय (सम्यग्दृष्टि) और परसमय (मिथ्यादृष्टि) का लक्षण करते हुए लिखा है कि जो दर्शनज्ञान-चारित्र में स्थित है वह स्वसमय है और जो पुद्गल क्रर्मप्रदेशोंमें स्थित है वह परसमय है । यह दृष्टिको अपेक्षा कथन है । इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर पण्डितप्रवर दौलतरामजी एक भजनमें कहते हैं -
हम तो कबहूँ न निज घर आये पर घर फिरत बहुत दिन बीते नाम अनेक धराये । हम तो कबहूँ न निज घर आये । परपद निजपद मान मगन हे पर परिणति लिपटाये । शुद्ध बुद्ध चित्कन्द मनोहर चेतन भाव न भाये ।
हम तो कबहूँ न निज घर आये। अपर पक्षने जो यह लिखा है कि 'अतः इससे कार्य-कारणको व्यवस्थाको असंगत नहीं माना जा सकता ।' हम इसे भी स्वीकार करते हैं, क्योंकि उपचरित और अनुपचरित दोनों दृष्टियोंको मिलाकर प्रमाण दुष्टिसे आगममें कार्य-कारणकी जो व्यवस्था को गई वत् ‘बाह्य और आम्यन्तर उपाधिको समग्रतामें प्रत्येक कार्य होता है यह द्रव्यगत स्वभाव है' इस यवस्थाको मानमें रखकर ही की गई है। दोनोंको समग्रतामें