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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा मानं परेण परिणमयितुं पार्येत । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्येत । स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत । न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते । ततः पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभाव स्वयमेवास्तु । तथा सति कलशपरिणता मृत्तिका स्वयं कलश इब जडस्वभावज्ञानावरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं ज्ञानावरणादि कर्म स्यात् । इति सिद्धं पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वम् ।
इसका अर्थ करते हुए पं० श्री .....: लिखो -..
और जो ऐसा तर्क करे कि जीव पुद्गल द्रव्यको कर्म भावकर परिणमाता है इसलिये संसारका अभाव नहीं हो सकता? उसका समाधान यह है कि पहले दो पक्ष लेकर पूछते है जो जीव पुद्गलको परिणमाता है वह स्वयं अपरिणमतेको परिणमाता है या स्वयं परिणमतेको परिणमाता है ? उनमेंसे पहला पक्ष लिया जाय तो स्वयं अपरिणमतेको नहीं परिणमा सकता, क्योंकि आप न परिणमतेको परके (द्वारा) परिणमानेको सामर्थ्य नहीं होती, स्वतः शक्ति जिसमें नहीं होती वह पर कर भी नहीं की जा सकती। और जो पुद्गलद्रव्यको स्वयं परिणमतेको जीव कर्मभावकर परिणमाता है ऐसा दूसरा पक्ष लिया जाय तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि अपने आप परिणमते हुए को अन्य परिणमानेवालेको आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि वस्तुको शक्ति परकी अपेक्षा नहीं करती। इसलिये पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभाव स्वयमेव होवे। ऐसा होने पर जैसे कलशरूप परिणत हुई मिट्टी अपने आप कलश ही है उसी तरह जड़ स्वभाव ज्ञानावरण आदि कर्मरूप परिणत हुआ पुद्गल द्रव्य ही आप ज्ञानावरण आदि कर्म ही है। ऐसे पुद्गल द्रव्यको परिणामस्वभावता सिद्ध हुआ।
यह परमागमकी स्पष्टोक्ति है जो निश्चथपक्ष और व्यवहारपक्षके कथनका आशय क्या है इसे विशदरूपसे स्पष्ट कर देती है। निश्चयनमसे देखा जाय तो प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणामस्वभाववाला होनेसे अपने उत्पाद-व्ययरूप परिणामको अपनेमें, अपने द्वारा, अपने लिए, आप ही करता है। उसे इसके लिये परकी सहायताकी अणुमात्र भी अपेक्षा नहीं होती। यह कथन वस्तुस्वरूपको उद्घाटन करनेवाला है, इसलिए वास्तविक है, कथनमात्र नहीं है। व्यवहारनयसे देखा जाय तो कुम्भकारके विवक्षित क्रिया परिणामके समय मिट्टोका विवक्षित क्रियापरिणाम दृष्टिपथमें आता है, यतः कुम्भकारका विषक्षित क्रिया परिणाम मिट्टीके घटपरिणामकी प्रसिद्धिका निमित्त (हेतु) है, अतः इस नय से यह कहा जाता है कि कुम्भकारने अपने क्रियापरिणामद्वारा मिट्टीमें घट किया । यतः यह कथम वस्तुस्वरूपको उद्घाटन करनेवाला न होकर उसे आच्छादित करनेवाला है, अतः वास्तविक नहीं है, कधनमात्र है। परमागममें निश्चयनयको प्रतिषेधक और व्यवहारनयको प्रतिषेष्य क्यों बतलाया गया है यह इससे स्पष्ट हो जाता है। स्वरूपका उपादान और पररूपका अपोहन करना यह जब कि वस्तुका वस्तुत्व है। ऐसी अवस्थामें उस द्वारा असत् पक्षको कहनेवाले व्यवहारतयका अपोहन अपने आप हो जाता है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए अष्टसाहनी पृ० १३१ में लिखा है
स्वपररूपोपादानापोहनव्यवस्थापाद्यत्वावस्तुनि वस्तुत्वस्य । अर्थ पूर्व में लिखा ही है।
व्यबहारनय असत् पक्षको कहनेवाला है यह इसीसे स्पष्ट है कि वह अन्यके धर्मको अन्यका कहता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा ५६ की टीकामें यह वचन लिखा है