________________
१२६
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा चारित्रको निवृत्तिरूपसे सम्यक्चारिखमैं गर्भित कर लिखा है कि जितनी भी निवृत्ति है वह केवल संवर तया निर्जराको ही कारण है, वह फभो भो बन्धका कारण नहीं हो सकती है। अतः प्रतोंका पालन संवरनिर्जरा है।'
किन्तु अपर पक्ष यह भूल जाता है कि इस सूत्र द्वारा मात्र अशुभसे निवृत्ति कही गई है, शुभ और अशुभ दोनोंसे निवृत्ति नहीं कही गई है । अतः इस मूत्र द्वारा आस्रव तत्त्वका ही निरूपण हुआ है, संवरनिर्जरा या मोक्षतत्त्वका नहीं। हमारे इस कथनकी पुष्टि उस सूत्रको उत्थानिकासे हो जाती है। सर्वार्थसिद्धिमें इसकी उत्थानिकामें लिखा है
आस्रवपदार्थो व्याख्यातः । तत्प्रारम्भकाले एवोक्तं 'शुभः पुण्यस्य' इति तत् सामान्येनोक्तम् । तद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थ कः पुनः शुभः इत्युक्ते इदमुच्यते ।
आस्रव पदार्थका व्याख्यान किया। इसके प्रारम्भ काल में ही कहा है—'शुभः पुण्यस्य ।' पर वह सामान्यरूपसे कहा है। उसके भेदोंका शान करानके लिए 'शुभ क्या है' ऐसी पृच्छा होनेपर यह सूत्र कहते हैं ।
इससे स्पष्ट है कि इस सूत्र द्वारा आत्रवतत्त्वका ही कथन किया गया है, संघर, निर्जरा और मोक्षतत्त्वका नहीं।
तत्त्वार्थसूत्रके उक्त सूत्रमें किस प्रकारकी निवृत्ति कही गई है इसके लिए बृहद्रव्यसंग्रहके इस वचनपर दृष्टिपात कीजिए
असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारित्त ।
वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥ ४५ ॥ जो अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्ति है उसे चारित्र जानो। इसे जिनदेवने व्यवहारनयसे बत, समिति और गुप्तिरूप कहा है ।।४।।
अपर पक्षका कहना है कि 'यत्तादानग्रहण करना या सत्य बोलना आदि व्रतोंका लक्षण नहीं है । इनको व्रतोंका लक्षण स्वीकार कर लेनेपर अव्याप्ति दोष आता है। किन्तु अपर पक्षका यह लिखना यक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इसे स्वीकार कर लेनेपर एक तो बृहद्रव्यसंग्रहके उक्त आगम बचनके साथ विरोध आता है। उसमें स्पष्ट वान्दों द्वारा शुभमें प्रवृत्तिको चारित्र घोषित किया गया है। दूसरे, साधु के जबतक आहार आदिके ग्रहणका विकल्प या कपायांश बना हुआ है तब तक व्यवहारसे शुभ प्रवृत्तिका सर्वथा निषेध नहीं किया जा सकता। आगेके गुणस्थानों में यथायोग्य संज्ञाओंका सदभाव और छेदोपस्थापना संयम इसी आधारपर स्वीकार किया गया है । इसके लिए नौवें अध्याय में २२ परीषहोंका प्रकरण द्रष्टव्य है।
धवल पु० १४ १०८९ में जो अप्रमादका लक्षण दिया है, उसका आशय इतना ही है कि पांच महाश्रत और पांच समितिरूप विकल्प तो छठवें गुणस्थानमें होता है । आगे छेदोपस्थापना संयम रूपसे इनका सदभाव स्वीकार किया गया है। उसके भी आगे सूक्ष्मसांपराय संयम और यथाख्यात संयममें इन्हें गभित कर लिया है।
इससे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूश्रमे ७वें अध्यायके प्रारम्भमें जिन व्रतोंका निर्देश है उनका मानव तत्त्वमें हो अन्तर्भाव होता है। यही कारण है कि देवायुके आत्रवोंमें सरामसंयम और संयमासंयमको भी परिगणित किया गया है । तत्थार्थवातिक अ० ६ सू० २० में लिखा है